साहित्य के बारे में कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है, अर्थात जो क्रियाकलाप समाज में घटित हो रहे हैं, उनको संवेदनाओं के साथ, कलात्मकता के साथ, उसी तापमान पर प्रस्तुत करना, जिस पर समाज उसे मूल रूप में महसूस कर सके। परंतु 'प्राज्ञ साहित्य' वह साहित्य है, जो समाज का प्रेरक हो। वह विषय-वस्तु को केवल उसके मूल रूप में विस्तारपूर्वक व्यक्त ही न करता रहे। वह समाज को सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ाने का कार्य करें। ऐसे में प्रश्न उठता है कि समाज में उपलब्ध आज-कल का साहित्य भी हमारे लिए प्रेरणा देता है। वह भी कोई न कोई संदेश अपने पाठक को प्रेषित करता ही है, तो साहित्य और प्राज्ञ साहित्य में क्या मूल अंतर हुआ। इसके लिए हमें समझना होगा कि सामान्य साहित्य (जिसका प्रधान उद्देश्य विषय-वस्तु को केवल उसके मूल रूप में ही व्यक्त करना हो) से समाज का एक सामान्य वर्ग उसके विषय-वस्तु में विस्तार से व्यक्त नकारात्मक क्रियाकलापों की पुनरावृति की प्रेरणा भी ले सकता है और दूसरा वर्ग उनसे सजग होने की। ऐसी स्थिति में सच्चे साहित्यकार की भूमिका अतिसंवेदनशील हो जाती है। उसे समाज की नकारात्मक घटनाओं को इस रूप में व्यक्त करना होता है कि उन घटनाओं से समाज अवगत तो हो, परंतु घटित क्रियाकलापों की दिशा में आगे बढ़ने की प्रेरणा का उसे अवकाश न हो। समाज कथ्य के समस्त प्रेरक पक्षों से अवगत हो सके, इसके लिए कथ्य को व्यापकता से प्रस्तुत करना होता है। साथ ही सजगता को महत्त्व देते हुए नूतनता को भी प्रस्तुत करना होता है, ताकि समाज केवल उन्हीं लकीरों को पीटता न रहे, जिससे किसी तथ्य का मूल उद्देश्य ही समाप्त हो जाए और वह रूढ़ी बन जाए। यही साहित्य सच्चे अर्थों में प्राज्ञ साहित्य है।
ऐसे में हमें आदर्शात्मक साहित्य और प्राज्ञ साहित्य के मूल अंतर को भी ध्यान में रखना होगा, क्योंकि आदर्शात्मक साहित्य ही रूढ़ियों को ढोने; लकीरों को पीटने; यथास्थिति को बनाए रखने और सकारात्मक नवीनता को भी आदर्श विरुद्ध बताने का कट्टर समर्थक रहा है। परंतु 'प्राज्ञ साहित्य' प्रेरक होने के चलते कटु और यथार्थ भी हो सकता है। परंपराओं को बचाने के लिए आदर्शात्मक भी हो सकता है। यह मूल तत्वों की उपेक्षा की स्थिति में रूढ़ी विरोधी भी हो सकता है और नूतनता के नाम पर जीवन के सकारात्मक मूल तत्वों को छोड़ देने का भी विरोधी हो सकता है। अतः कहा जा सकता है कि प्राज्ञ साहित्य विषय–वस्तुओं को संकुचित रूप में रखने और कथ्य (प्रेरणात्मक पक्ष) को व्यापकता प्रदान करने की परिपाटी पर खरा उतरता है, जबकि सामान्य साहित्य विषय-वस्तु को ही प्रमुखता व व्यापकता प्रदान करता है। वहां कथ्य (प्रेरणा) को या तो अंत में संकुचित स्थान दिया जाता है, या पाठक पर स्वयं प्रेरित होने का भार छोड़ दिया जाता है। ऐसी स्थिति में सामान्य पाठक के लिए साहित्य में व्यक्त क्रियाकलाप भी उसे नकारात्मक दिशा में पहुंचाने में भी कभी-कभी सहायक हो जाते हैं, जबकि प्राज्ञ साहित्य अपने पाठक को इससे बचाते हुए, उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है ।
यह पत्रिका समाज को आगे बढ़ने की सकारात्मक प्रेरणा हेतु; रूढ़ियों को समाप्त करने हेतु; परंपराओं को अपने मूल उद्देश्य के साथ संरक्षित करने हेतु; समाज को व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करते हुए, वसुधैव कुटुम्बकम् को चरितार्थ करने हेतु; वर्तमान में उपलब्ध एवं भविष्य में लिखे जाने वाले 'प्राज्ञ साहित्य' को पहचान कर, उसे स्थान प्रदान करेगी।
यह अंक इस पत्रिका की विकास यात्रा का प्रथम कदम है। अतः हिंदी, जो भारत की ही नहीं, विश्व को भी एक सूत्र में जोड़ने का काम कर सकती है और कर रही है, इसी को ध्यान में रखते हुए हिंदी को विश्व की भाषा स्वीकारने और केवल भारत की भाषा होने की कुंठित सोच से बाहर निकालने का एक प्रयास है, ऐसा मेरा मानना है। अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल (म॰प्र॰) के प्रथम कुलपति रह चुके प्रो. मोहनलाल छीपा जी के साथ की गई बातचीत इस अंक का मुख्य आकर्षण है। साथ ही 'विश्व हिंदी सम्मेलन' जैसे आयोजन का सपना देखने वाले मॉरीशस में हिंदी आंदोलन से जुड़े श्री जयनारायण रॉय के बारे लिखे गये लेख से पत्रिका की यात्रा का प्रारम्भ कर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि देने का यह हमारा लघु प्रयास है। ओड़िया भाषा की वर्णमाला और चीनी भाषा के संख्या-परिचय को हिंदी की इस पत्रिका में स्थान देना मानवीय विकास की व्यापकता को सहज बनाने का एक नया प्रयास है। इसके लिए आप सभी के साथ और आशीर्वाद की अपेक्षा है।
प्रधान संपादक
उमा कान्त