भाषा
भाषा एक सामाजिक क्रिया है। समाज में यह विचार-विनिमय का साधन है। मनुष्य और मनुष्य के बीच, वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति का आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतों का जो व्यवहार होता है, उसे भाषा कहते हैं।
भाषा एक सामाजिक क्रिया है। अर्थात् आपस के या सामाजिक साहचर्य द्वारा वह सीखनी पड़ती है। वह सामाजिक और सांकेतिक संस्था है। ध्वनियों, स्वर-विकार, मुख-विकृति, बल-प्रयोग, आचरण का वेग आदि भाषा के आवश्यक गौण अंग माने जाते हैं। विशेषकर अविकसित जातियों की भाषाओं में। साहित्यिक पद पर आसीन होने के लिए प्रत्येक भाषा को इन अंगो का बहुत कुछ त्याग करना पड़ता है। उस समय भाषा के चार अंग ही प्रधान हो जाते हैं- शब्द, वाक्य, ध्वनि और अर्थ। शब्दों के अर्थ शाश्वत नहीं होते। स्थान, समाज, व्यक्ति आदि के भेद से उनमें परिवर्तन होते रहते हैं। सभ्यता के विकास, मानसिक और भौतिक परिवर्तनों के साथ-साथ फलतः जटिलताओं और दुरूहताओं के विकास के साथ-साथ अथवा एक जाति के दूसरी जाति के सम्पर्क में आने से भाषा का विकास भी होता है। कहा जाता है, "चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर बानी।" अर्थात् थोड़ी-थोड़ी दूर पर समाज की भाषा में बदलाव आ ही जाता है, जो स्वाभाविक है। यही कारण है कि अलग-अलग क्षेत्रों में क्षेत्रीय भाषाएँ एक वृहत्तर परिवेश की मानक भाषा से जुड़ी रहती हैं।
भाषा की पहचान केवल यही नहीं कि उसमें कविताओं और कहानियों का सृजन कितनी सप्राणता के साथ हुआ है, बल्कि भाषा की व्यापकतर संप्रेषणीयता का एक अनिवार्य प्रतिफल यह भी है कि उसमें सामाजिक सन्दर्भो और नये प्रयोजनों को साकार करने की कितनी संभावना हैइधर संसार भर की भाषाओं में यह प्रयोजनीयता धीरे-धीरे विकसित हुई है और रोजी-रोटी का माध्यम बनने की विशिष्टताओं के साथ भाषा का नया आयाम सामने आया है : वर्गभाषा, तकनीकी भाषा, साहित्यिक भाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा, सम्पर्क भाषा, बोलचाल की भाषा, मानक भाषा आदि।
भाषा का अर्थ एवं परिभाषा
'भाषा' शब्द भाष् धातु से निष्पन्न हुआ है। शास्त्रों में कहा गया है- "भाष व्यक्तायां वाचि" अर्थात् व्यक्त वाणी ही भाषा है। भाषा स्पष्ट और पूर्ण अभिव्यक्ति प्रकट करती है।
भाषा का इतिहास उतना ही पुराना है जितना पुराना मानव का इतिहास। भाषा के लिए सामान्यतः यह कहा जाता है कि- 'भाषा मनुष्य के विचार-विनिमय और भावों की अभिव्यक्ति का साधन है।'
भाषा केवल अपनी प्रकृति में ही अत्यन्त जटिल और बहुस्तरीय नहीं है वरन् अपने प्रयोजन में भी बहुमुखी है। उदाहरण के लिए अगर भाषा व्यक्ति के निजी अनुभवों एवं विचारों को व्यक्त करने का माध्यम है; तब इसके साथ ही वह सामाजिक सम्बन्धों की अभिव्यक्ति का उपकरण भी है, एक ओर अगर वह हमारे मानसिक व्यापार(चिन्तन प्रक्रिया) का आधार है तो दूसरी तरफ वह हमारे सामाजिक व्यापार(संप्रेषण प्रक्रिया) का साधन भी है। इसी प्रकार संरचना के स्तर पर जहाँ भाषा अपनी विभिन्न इकाइयों में सम्बन्ध स्थापित कर अपना संश्लिष्ट रूप ग्रहण करती है जिनमें वह प्रयुक्त होती है। प्रयोजन की विविधता ही भाषा को विभिन्न सन्दर्भो मे देखने के लिए बाध्य करती है। यही कारण है कि विभिन्न विद्वानों ने इसे विभिन्न रूपों में देखने और परिभाषित करने का प्रयत्न किया है -
1. डॉ. कामता प्रसाद गुरु -
भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों तकभलीभाँति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार स्पष्टतया समझ सकता है।
2. आचार्य किशोरीदास वाजपेयी -
विभिन्न अर्थों में संकेतित शब्दसमूह ही भाषा है, जिसके द्वारा हम अपने विचार या मनोभाव दूसरों के प्रति बहुत सरलता से प्रकट करते हैं।'
3. डॉ. भोलानाथ तिवारी -
भाषा उच्चारणावयवों से उच्चरित यादृच्छिक(arbitrary) ध्वनि-प्रतीकों की वह संचरनात्मक व्यवस्था है, जिसके द्वारा एक समाज-विशेष के लोग आपस में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं
4. डॉ. श्यामसुन्दर दास -
मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति का आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतों का जो व्यवहार होता है उसे भाषा कहते हैं।
5. डॉ. बाबूराम सक्सेना -
जिन ध्वनि-चिहनों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता है, उनको समष्टि रूप से भाषा कहते हैं।
6. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव -
भाषा वागेन्द्रिय द्वारा नि:स्तृत उन ध्वनि प्रतीकों की संरचनात्मक व्यवस्था है जो अपनी मूल प्रकृति में यादृच्छिक एवं रूढ़िपरक होते हैं और जिनके द्वारा किसी भाषा-समुदाय के व्यक्ति अपने अनुभवों को व्यक्त करते हैं, अपने विचारों को संप्रेषित करते हैं और अपनी सामाजिक अस्मिता, पद तथा अंतर्वैयक्तिक सम्बन्धों को सूचित करते हैं।
इस प्रकार भाषा यादृच्छिक वाक् प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसे मुख द्वारा उच्चारित किया जाता है और कानों से सुना जाता है, और जिसकी सहायता से मानव-समुदाय परस्पर सम्पर्क और सहयोग करता है।
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि- “मुख से उच्चरित ऐसे परम्परागत, सार्थक एवं व्यक्त ध्वनि संकेतों की समष्टि ही भाषा है जिनकी सहायता से हम आपस में अपने विचारों एवं भावों का आदान-प्रदान करते हैं।"