गीतिका
खो रही है रोज अपनी एकता यूँ,
हाथ से मानव हकीकत मेटता यूँ।
बाजुओं पर है भरोसा जिस किसी को,
लौटकर पीछे नहीं वो देखता है।
राह में आई मुसीबत को सहज ही,
पाँव की ठोकर पे रखकर खेलता है।
बुज़दिली के वास्ते केवल बहाना,
रोटियाँ अक्सर उसी की सेंकता है।
है प्रदूषण के कहर से कौन बाहर?
मौत बन दुष्कर्म अपना घेरता है।
कौन समझाये अवध इंसान को अब,
जाल खुद ही खुद बिछाकर झेलता है।
गीतिका
जनता कद्र करेगी जब तक नेता की,
नेतागण यूँ ही जनता को लूटेंगे।
प्रतिभाएँ सड़कों पर कुचली जाएँगी,
लोकतन्त्र के भाग्य रोज ही फूटेंगे।
अपनी क्षमता को पहचानों, कद्र करो,
मक्कारों के अहंकार तब टूटेंगे।
फिर कोई गणितज्ञ नहीं पागल होगा,
धोखा देने वालों को जब कूटेंगे।
जब तक हम जिम्मेदारी से भागेंगे,
अन्य लोग जिम्मेदारी से छूटेंगे।
जो अपना उल्लू साधे तुमसे मिलकर,
अवध भगाओ, रूठेंगे तो रूठेंगे।
डॉ अवधेश कुमार अवध, मेघालय