हिंदी के वैश्विक स्वरूप में मॉरीशस लेखक जयनारायण रॉय का योगदान


जब मॉरिशस के लेखक जयनारायण रॉय शिक्षा प्राप्त करने के लिए भारत पहुंचे, तो मदन मोहन मालवीय ने (जो जयनारायण के पिता के मित्र थे) जयनारायण को बनारस हिंदू कॉलेज की आठवीं कक्षा में प्रवेश दिलाया और रहने के लिए छात्रावास भी दिया। इस तरह पंडित मदन मोहन मालवीय और पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी ही जयनारायण रॉय के अभिभावक बने। जयनारायण रॉय को बनारस में पाकर मालवीय जी ने अपनी आँखों में मॉरीशस के लिए सपना भरते हुए कहा था- 'मैं मॉरीशस के हिंदू प्रवासी विद्यार्थियों को बहुसंख्या में यहां पढ़ते देखना चाहता हूँ। जयनारायण 1925 से 1930 तक पंडित मालवीय के मार्गदर्शन में बनारस में अध्ययन करते रहे और वहीं से इंटरमीडिएट पास किया। आगे की शिक्षा के लिए जयनारायण ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहां से एम.ए. और एल.एल.बी. की परीक्षा पास की। इलाहाबाद उस समय क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का अखाड़ा बना था। उसी शहर में नेहरू परिवार का घर आनंद भवन था (अब म्यूजियम है), जहां भारतीय नेताओं और आजादी के मतवालों का आना-जाना लगा रहता था। चंद्रशेखर आजाद पार्क के बगल में ही जयनारायण रॉय का छात्रावास था। वही चंद्रशेखर आजाद छिपते थे।


इस प्रकार भारत की आजादी के मतवालों से उन्हें प्रेरित होने का अवसर मिला। जहां तक हिंदी में जयनारायण रॉय के योगदान का प्रश्न है, तो वे महात्मा गांधी की तरह हिंदी के समर्थक थे। उनकी  इच्छा थी कि हिंदी भाषा घर - घर में, बैठकाओं में, सामाजिक और धार्मिक अनुष्ठानों में बोली जाये। महात्मा गांधी ने 1936 में 'राष्ट्र भाषा-प्रचार समिति, वर्धा'  का गठन करके सारे भारत में हिंदी आंदोलन के जरिये हिंदी के प्रचार-प्रसार का व्रत लिया था। उसी से जयनारायण प्रभावित हुए थे। उस समय वे मीनापुर में कठिन परिश्रम कर रहे थे, जब हिंदी को मातृभाषा बनाने का गांधी जी का प्रयास अपनी चरम सीमा पर था।                                                      


जयनारायण रॉय विद्वान हिंदी प्रचारक थे, पर उन्होंने हिंदी की अपनी संस्था नहीं खोली। हिंदी के लिए 1926 से (तिलक विद्यालय के लिए) हिंदी प्रचारिणी सभा के साथ सूरूज प्रसाद मंगर भगत से जा मिले। उनके साथ उनके दो मित्र उमाशंकर गिरजानंद और जगदत्त भी थे। वे 1952 से 1977 तक हिंदी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष रहे और हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। वे हिंदी प्रचारिणी सभा के प्राण थे और शुद्ध भाषा के प्रचारक। इस महान व्यक्ति ने सभा पर अपनी सज्जनता, विद्वता, सेवा-कार्य का जो प्रभाव छोड़ा है, वह आज अमिट है।  


जयनारायण रॉय इलाहाबाद में पढ़े-लिखे थे, उन्होंने अपने संपर्क से हिंदी प्रचारिणी सभा में प्रयाग हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा प्रवेशिका से उत्तमा तक की साहित्य की पढ़ाई व परीक्षाएँ शुरू करवाईं। फलस्वरूप 1946 में सम्मेलन की प्रथम परीक्षा 'हिंदी परिचय' का आयोजन हुआ। हिंदी प्रचारिणी सभा से मिलकर उन्होंने लगभग 300 हिंदी पाठशालाएँ खुलवायीं और उनका संचालन किया। छात्र-छात्राओं को मौलिक लेखन और सृजन की ओर आकर्षित किया। मौलिक रचनाओं पर प्रमाणपत्र व  पुरस्कार की व्यवस्था कराई। साथ ही 30000 छात्र-छात्राओं के कार्य का निरीक्षण-परीक्षण भी स्वयं करते थे। उन्हीं के प्रधानत्व में हिंदी प्रचारिणी सभा का विकास हुआ। देश के विभिन्न भागों में सभा की शाखाएं खुलीं। सभा में शनिवारीय और रविवारीय कक्षाएं चालू हुईं। निबंध, लेख, कहानी प्रतियोगिताएँ शुरू हुईं थीं। यही कारण है कि जयनारायण रॉय विशुद्ध रूप से मॉरीशस में गांधीवादी हिंदी सेवक और साहित्यकार माने जाते हैं।


जयनारायण रॉय 1941 में 'जीवन संगिनी' एकांकी लिखकर मॉरीशस के प्रथम नाटककार सिद्ध हुए और इनके हिंदी नाटक रंगमंच पर भी खेले गए। जयनारायण रॉय बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं में कलम चलाई। वे इस (मॉरीशस) देश के प्रसिद्ध लेखक थे। अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में उन्होंने अनेक लेख लिखे। उनका प्रथम लेख 'मॉरीशस मित्र' में छपा था,  1931 का यह लेख सार्वजनिक चुनाव पर था। उनके लेख सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक आदि विषयों पर देश के दर्जनों पत्रों में छप रहे थे, परन्तु उनकी प्रथम कृति 1938 में छपी थी। जिसका नाम था- 'क्या हैं मॉरीशस के भारतीय'। उनकी पहली कविता 'मॉरीशस मित्र' 1923 में छपी थी। जयनारायण रॉय अपने छात्र काल में कोलकाता की 'आनंद बाजार' पत्रिका में लिखते थे। यहां मॉरीशस में उनके लेख स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में छपते ही थे, जैसे- 'मॉरीशस मित्र',  'मॉरीशस आर्य पत्रिका', 'ले रजिकाल', 'ले मॉरीशियन', 'जनता', 'आर्योदय',  'अडवांस', 'लेव', 'समाज वाद', 'नवजीवन',  'लेक्सप्रेस' आदि। वे एक यशस्वी पत्रकार थे। पत्रकारिता के जरिये उन्होंने देश के भारतवंशियों को एक पहचान दी। जयनारायण रॉय ने अपनी पत्नी रोहिणी के सहयोग से क्युर्पिप शहर में 'मॉरीशस कॉलेज' की स्थापना भी की।                                         


1937 में इस (मॉरीशस) देश में हिंदी आंदोलन से जुड़े श्री जयनारायण रॉय ने 'विश्व हिंदी सम्मेलन' जैसे आयोजन का सपना देखा था। हिंदी प्रचारिणी सभा ने जयनारायण की देख-रेख में 'हिंदी दिवस', 'हिंदी सप्ताह' और 'प्रेमचंद्र सप्ताह' जैसे समारोहों का आयोजन किया। 7 दिसंबर 1941 को हिंदू महासभा पोर्ट लुईस में प्रथम साहित्य सम्मेलन का आयोजन हुआ। हिंदी प्रचारिणी सभा द्वारा संपन्न इस अवसर पर 'जीवन संगिनी' देश के प्रथम एकांकी का प्रकाशन हुआ।


1965 में उन्होंने प्रथम अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन का आयोजन किया। जिसमें भारत के प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर जी आए थे। इस सम्मेलन में कवि हरिवंशराय बच्चन और शिवमंगल सिंह सुमन ने भी संयोग किया था। 1969 में आर्यसभा के साथ मिलकर जयनारायण रॉय ने हिंदी प्रचारिणी सभा की अध्यक्षता में देशभर में 'हिंदी सप्ताह' का आयोजन किया था। 28 अगस्त 1976 को 'द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन' का आयोजन मॉरीशस में हुआ। सम्मेलन का उद्घाटन जयनारायण रॉय के द्वारा ही हुआ था। इन्हें (जयनारायण रॉय को) प्रस्तुत करते हुए डॉ. धर्मवीर भारती ने कहा था- “हिंदी के साधक ने हिंदी का तुमुल संघर्ष यहां किया है। जयनारायण रॉय जी से प्रार्थना करूंगा कि वे यहां आयें और अपने वक्तव्य से गोष्ठी का प्रारंभ करें”। जयनारायण रॉय के प्रथम वाक्य से पंडाल गूंज उठा था-“हिंदी यहां अंग्रेजी की तरह तलवार की ताकत बनकर नहीं आई। यह उपनिषद, रामायण और गीता की बेटी बनकर आई”।


 


वरिष्ठ लेखक, कवि एवं पत्रकार   


संपर्क सूत्र- महात्मा गांधी संस्थान, मॉरीशस