जब तक मन में पीर बसी है
चाहे कितने दिए जलाओ, तरह-तरह से भवन सजाओ।
जब तक मन में पीर बसी है, तब तक कुछ भी नहीं सुहाता।।
जैसी यहां रीति चल रही, उसके आगे सब बेबस है।
हद से ज्यादा पर जो बढ़ता, मिट जाता वह एक दिवस है।
रीत रिवाज बदल जाती है, प्रीत जहां पर पल जाती है।
दुनिया करे खिलाफत कितनी, किंतु नहीं कुछ भी हो पाता।।
जब तक मन में पीर बसी है, तब तक कुछ भी नहीं सुहाता।।
दो मिलने वालों में से तो, कभी नहीं इक समता होती।
जितनी जिससे लगी लगन है, उतनी उससे ममता होती।
तुमने किया निभाया हमने, यह तो है व्यवहार चलन में।
किंतु नहीं कुर्बानी कि यदि, सब दिखलावा समझा जाता।।
जब तक मन में पीर बसी है, तब तक कुछ भी नहीं सुहाता।।
सच्ची लगन लगी है जिससे, निश्चित ही वह मिल जाएगा।
अरमानों की बगिया में तब, सुमन प्यार का खेल जाएगा।
चाहे कितनी विपदा आए, कितना ही संसार डराये।
मन से जीत गया जो राही, कहीं नहीं फिर वह घबराता।।
जब तक मन में पीर बसी है, तब तक कुछ भी नहीं सुहाता।।
सदा संभालो अपने को तुम, गैरों से क्या लेना-देना।
पर-विश्वास नहीं फंसना तुम, अपनी या स्वयं ही खेना।
अपनी जो परवाह न करता, सदा व्यथाएं सबकी हरता।
वही बड़ा होता है जग में, औरों को जो पार लगाता।।
जब तक मन में पीर बसी है, तब तक कुछ भी नहीं सुहाता।।
सुरेश चंद्र सक्सेना, कासगंज, उ0प्र0 (भारत)