न तरसा लबों को अब और तू


न तरसा लबों को अब और तू,


 


न तरसा लबों को अब और तू,
चंद बूंदें मैं शबनम की लाया हूं।


तू मुस्करा दे बस पल भर के लिए,
खुशबू फूलों की चुरा कर लाया हूं।


दे दे आज़ादी जुल्फों को जूड़े से तेरे,
आसमां से घटाएं उतार कर लाया हूं।


सो जा अब तू ख्वाबों की गोद में,
मैं सुरुर में डूबी ये रात लाया हूं।


झुक जाने दे पलकों को आज शर्मा कर,
उनकी चाहतों में डूबे मैं ख्वाब लाया हूं।


यूं ही नहीं खिलखिलाती है ख़ामोशी तेरी,
इनके लिए मैं खनक साज़ की ले आया हूं।


तुझे तो इल्म भी न होगा मेरी तड़प का,
आसमां से उतार कर चांदनी ले आया हूं।


 


अजय "आवारा"  बेंगलुरू (कर्नाटक) भारत