नयन ज्योति
पतझड़ का मौसम था
पैरों के नीचे सूखे पत्ते अपने अस्तित्व के
चकनाचूर हो जाने पर कराह रहे थे,
बारिश का मौसम था
मिट्टी की सौंधी सुगंध
घर की मुंडेर पर बरसता पानी
मेरे रोम रोम को पुलकित कर रहे थे,
रात हो गई थी ठंडक और नमी को
मैंने महसूस किया था,
सुबह हो आई थी
पक्षियों के काफिले
दानों की तलाश में चहचहाते हुए निकल चुके थे,
दोपहर हो गई थी और पसीने से मैं तरबतर थी,
शायद बसंत का ही महीना होगा
हर ओर मदहोश कर देने वाली खुशबू बिखरी हुई थी,
सब महसूस किया, सब सुना ,सब छुआ
पर सांझ कब ढली पता ही न चला
सुनती हूं
डूबते सूरज की लाली को महसूस नहीं किया जाता
उसे तो बस देखा जा सकता है.....
तुलसी कार्की, उदालगुड़ी, असम