प्रो॰ मोहनलाल छीपा जी
प्रथम कुलपति, अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल
अभी हाल ही में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद ने यह घोषणा की है कि वह भारतवर्ष में हिंदी माध्यम से तकनीक की पढ़ाई कराए जाने की दिशा में कार्य कर रहा है। जिसकी प्रेरणा उसको अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल से प्राप्त हुई है। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद अभियांत्रिकी शिक्षा की एक नियामक संस्था है। अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल देश का अकेला ऐसा विश्वविद्यालय है, जो अपने समस्त पाठ्यक्रमों की पढ़ाई केवल हिंदी माध्यम से कराता है। जिसमें चिकित्सा और अभियांत्रिकी की शिक्षा भी सम्मिलित है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल इस दिशा में अन्य संस्थाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत कैसे बन सका। इन्हीं सभी जिज्ञासों की पूर्ति के लिए पत्रिका के संपादक श्री उमा कांत अर्थात मेरे द्वारा अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल के प्रथम कुलपति प्रोफेसर मोहन लाल जी से लिए गए साक्षात्कार के माध्यम से विश्वविद्यालय की उन उपलब्धियों के कारणों को जानने का प्रयास किया गया। जिनके द्वारा आज विश्वविद्यालय पूरे भारतवर्ष के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया है। 'प्राज्ञ साहित्य' के इस प्रथम अंक में पत्रिका के संपादक श्री उमा कांत की अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल के प्रथम कुलपति प्रोफेसर मोहन लाल छीपा जी से की गयी बातचीत के मुख्य अंश इस आशा के साथ प्रकाशित किए जा रहे हैं कि यह साक्षात्कार अन्य सभी संस्थाओं को हिंदी माध्यम से शिक्षा प्रदान करने में अवश्य सहायक सिद्ध होगा।
संपादक
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श्री उमा कांत - प्रोफ़ेसर साहब, आप अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल के प्रथम कुलपति रहे हैं। कुलपति जी, जैसा कि सच है कि हिंदी के लिए अनेक लोग प्रयास कर रहे हैं, ऐसे में आपका योगदान इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि आपने इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई भी हिंदी माध्यम से कराने का संकल्प लिया। कुलपति जी, आपसे मेरा पहला प्रश्न यही है कि अंग्रेजी के दौर में ऐसा निश्चय चुनौती भरा था, तो आपको किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा?
प्रो॰ छीपा जी - आज देश में लगभग सभी विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर तक खासकर हिंदी बेल्ट में चिकित्सा, अभियांत्रिकी, कृषि, विधि, संगणक, प्रौद्योगिकी, प्रबंधन में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई हो रही है। देश को आजाद हुए 73 वर्ष हो गये, लेकिन अभी तक किसी ने यह सोचा ही नहीं कि इन विषयों की पढ़ाई हिंदी माध्यम से कराई जाये। मध्य प्रदेश शासन ने 2010 में यह सोचा और 2011 में इस विश्वविद्यालय अर्थात् अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल की स्थापना की। 30 जून 2012 को मैंने कार्यभार ग्रहण किया। मेरे सामने सबसे बड़ी चुनौती सभी विषयों को हिंदी माध्यम से पढ़ाने और उनके पाठ्यक्रम को तैयार कराने की थी। 31 जुलाई 2017 को मैं वहां से सेवानिवृत्त हुआ। तब तक 250 पाठ्यक्रम हिंदी माध्यम से बनाए जा चुके थे। जिनमें प्रमाण-पत्र, पत्रोपाधि, स्नातक, स्नातकोत्तर, विद्यानिधि एवं विद्यावारिधि संबंधित पाठ्यक्रम हमने तैयार कराये।
सबसे बड़ी चुनौती इन पाठ्यक्रमों में अभियांत्रिकी, चिकित्सा, प्रबंधन में उनका पाठ्यक्रम बनाने और उनका क्रियान्वयन करने की थी। प्रबंध और अभियांत्रिकी की पाठ्यक्रमों के लिए नियामक संस्था अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद है और चिकित्सा की नियामक संस्था भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद है। प्रबंधन और अभियांत्रिकी पाठ्यक्रमों में संस्थाओं को नियामक संस्था से अनुमति लेनी होती है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के एक नियम के अनुसार विश्वविद्यालयों को अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद के मानकों पर कार्य करने की आवश्यकता नहीं है। इस दृष्टि से प्रबंधन के पाठ्यक्रम हमने बनाए और उनका प्रबंधन किया।
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अभियांत्रिकी के अंतर्गत नागर अर्थात सिविल अभियांत्रिकी, विद्युत अर्थात इलेक्ट्रिकल अभियांत्रिकी और यांत्रिकी अर्थात मैकेनिकल अभियांत्रिकी के पाठ्यक्रम प्रारंभ किये। क्योंकि विश्वविद्यालय नया था; अतः प्रारंभ में प्रयोगशालाओं की असुविधा थी। उसके लिए हमने सरकारी संस्थाओं से सहमति प्राप्त कर व्यवहारिक कक्षाएँँ, उनके यहाँँ लगायीं और सैद्धांतिक कक्षा विश्वविद्यालय में लगायीं। इन सब मुख्य चुनौतियों में आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी । लेकिन सरकारी महाविद्यालयों से बातचीत करके व्यवहारिक कक्षाओं को हमने वहां लगवाया।
दूसरी चुनौती अभिभावक व छात्रों में यह विश्वास पैदा करने की थी कि हिंदी माध्यम से नौकरी मिलेगी या नहीं। विश्वविद्यालय हमेशा इस बात का पक्षधर था कि विश्वविद्यालय छात्रों को नौकरी करने के लिए नहीं, बल्कि नौकरी देने के लिए अध्ययन कराना चाहता है। इसके लिए स्वरोजगार के प्रति उनके आत्मविश्वास को भी पूरा किया गया। जितने भी अंतरराष्ट्रीय देश हैं- जर्मनी, जापान, चीन, रूस, फ्रांस, इजरायल आदि, ये अपनी भाषा के आधार पर विकसित हुए हैं, किसी विदेशी भाषा के आधार पर नहीं। भारत में कई विदेशी कंपनियां आ रही हैं। उनको अपना माल बेचने के लिए भारतीय भाषा को ही प्राथमिकता देनी पड़ेगी और वे दे भी रही हैं। विद्यार्थियों को हम यह बात समझाने में भी सफल रहे कि भारत में नौकरी की अवधारणा ब्रिटिश शासन के बाद आई, उससे पहले हर घर में स्वरोजगार था और भारत सरकार केवल पाँच-छह प्रतिशत लोगों को ही संगठित क्षेत्र में नौकरी देती है। आजीविका के लिए स्वरोजगार ही श्रेष्ठ विकल्प है। इन तर्कों के आधार पर छात्रों को यह बात समझ में आयी। प्रारंभ में हमने 60 बच्चों से विश्वविद्यालय शुरू किया था। जो मेरे आने तक संख्या एक हजार के लगभग हो गयी थी।
एक अन्य चुनौती यह थी कि विश्वविद्यालय के अलावा हिंदी बेल्ट में यह बढ़ावा देना आवश्यक था कि विद्यार्थियों को हिंदी माध्यम से पेपर देने का अवसर दिया जाये। हम इस बात में सफल रहे कि राजीव गांधी तकनीक विश्वविद्यालय, भोपाल ने यह आदेश निकाला कि कोई भी विद्यार्थी अभियांत्रिकी की परीक्षा हिंदी या अंग्रेजी किसी भी माध्यम में दे सकता है। इस प्रकार से विद्यार्थियों को विश्वास होने लगा।
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तीसरी चुनौती पुस्तकों की थी। हिंदी माध्यम की उच्च स्तर की पुस्तकें उपलब्ध नहीं थीं। विश्वविद्यालय ने कई लेखकों की संगोष्ठी का आयोजन कर, उन्हें पुस्तकें लिखने के लिए प्रेरित किया। केंद्र सरकार के वे संस्थान जो हिंदी को बढ़ावा देते हैं। यथा- केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा, हिंदी निदेशालय, दिल्ली, वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, दिल्ली को विज्ञान और तकनीक क्षेत्र में लेखन कार्य को बढ़ावा देने के लिए पुरस्कृत करने का आग्रह किया और उन्होंने हमारे आग्रह को स्वीकार किया। अखिल भारतीय तकनीक शिक्षा परिषद, जो तकनीक क्षेत्र में नियामक संस्था है, उससे भी हमने तकनीकी पाठ्यक्रम हिंदी माध्यम से चलाने वाले संस्थानों को स्वीकृति प्रदान करने का आग्रह किया और मुझे खुशी है कि इस संस्था ने हमारे आग्रहों को स्वीकारा एवं पुस्तकों के निर्माण के लिए कई पुरस्कार एवं अनुदान देने की घोषणा की।
एक चुनौती तकनीक विषयों के शब्दकोशों के निर्माण की भी थी। हमने वैज्ञानिक-तकनीकी शब्दावली आयोग से आग्रह किया और वैज्ञानिक-तकनीक शब्दावली आयोग ने इस दृष्टि से कार्य किया और कर भी रहे हैं। उन्होंने तकनीक शब्दकोश उपलब्ध कराया। हमने लेखकों को आग्रह किया कि वे तकनीकी शब्द प्रारंभ में अंग्रेजी में ही प्रयोग करें और उनके सरल हिंदी अनुवाद को कोष्ठक में लिखें।
चिकित्सा के क्षेत्र में हमने भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद से संपर्क किया। प्रारंभ में उन्होंने कहा कि हमारे पास हिंदी में पाठ्यक्रम नहीं है। इसके जवाब में हमने कहा कि यदि हम हिंदी में पाठ्यक्रम बनवा कर दें, तो आप अनुमति दे देंगे। परंतु उन्होंने हिंदी में चिकित्सा की पुस्तकें उपलब्ध न होने, शोध-पत्र उपलब्ध न होने, शिक्षक उपलब्ध न होने, तथा वैश्वीकरण का तर्क देकर हमारे आग्रह को अस्वीकार कर दिया। परंतु हमने हमारे प्रयास जारी रखे और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद को देश के विद्वान चिकित्सा शिक्षकों द्वारा लिखी गयीं हिंदी माध्यम की तीन सौ से अधिक चिकित्सा पुस्तकों की सूची प्रस्तुत की। पाँच मेडिकल विद्यार्थियों द्वारा अपना स्नातकोत्तर शोध ग्रंथ, जिन्होंने हिंदी में लिखा और उनके विश्वविद्यालय ने उपाधि प्रदान की थी, की जानकारी हमने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद को दी। चिकित्सा की पुस्तकें प्रकाशित करने के लिए निजी चिकित्सकों से हमने बात की। वे हमारी बात से सहमत थे और उन्होंने हिंदी की चिकित्सा पांडुलिपि उपलब्ध करने की स्थिति में सहमति दी। दिल्ली के एक प्रकाशक ने अपनी चिकित्सा की अंग्रेजी की पुस्तकों को हिंदी में अनुवाद करने की शर्त पर प्रकाशन करने की स्वीकृति दी।
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चिकित्सा के क्षेत्र में विद्यार्थियों का हिंदी माध्यम से विश्वास जागृत करने के लिए हमने चिकित्सा विश्वविद्यालय से चर्चा की और मुझे इस बात की खुशी है कि मध्य प्रदेश चिकित्सा विश्वविद्यालय, जबलपुर ने हमारे आग्रह को स्वीकार किया और उसने अपने अधीन सभी महाविद्यालयों में सेमेस्टर परीक्षा में अंग्रेजी के साथ हिंदी में छूट प्रदान की। गत पाँच वर्षो में हमने यह भी प्रयास किया कि देश में जितनी भी प्रांतीय भाषाएं हैं, उन सभी में चिकित्सा प्रवेश परीक्षा देने की छूट हो। मुझे कहते हुए प्रसन्नता है कि अब सीबीएसई दस प्रांतीय भाषाओं में चिकित्सा की परीक्षा आयोजित करती है। सरकार के इस निर्णय का विभिन्न प्रांतों द्वारा स्वागत किया गया। जब कोई छात्र चिकित्सा की प्रवेश परीक्षा अपने माध्यम में देता है तो निश्चित रूप से उसे अपने भाषा में सेमेस्टर में माध्यम की छूट अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद को देनी होगी।
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद की हठधर्मिता के कारण ही हिंदी माध्यम से चिकित्सा शिक्षा आगे न बढ़ सकी। अब केंद्र सरकार ने इसे भंग कर दिया है। अब अपेक्षा यह है कि चिकित्सा की नयी नियामक संस्था इस दिशा में अवश्य कार्य करेगी।
यह विडंबना है जो विद्यार्थी भारत के बाहर से रूस, चीन, यूक्रेन आदि देशों से अपने देशों की भाषा में उत्तीर्ण छात्र यहां प्रैक्टिस कर सकते हैं। लेकिन अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद हिंदी में एमबीबीएस करने को अनुमति देने को तैयार नहीं थी। यदि वैश्वीकरण की बात करें तो दशमलव दो पाँच प्रतिशत अभ्यार्थी ही विदेश जाते हैं। इतने से अधिक अभ्यर्थी अंग्रेजी भाषा में शिक्षा ग्रहण करें। परंतु निन्यानवे दशमलव सात पाँच प्रतिशत लोग जो देश में हैं, उनसे न तो डॉक्टर अंग्रेजी में बीमारी पूछ सकता है, तो हिंदी में दवा लिखने में उसे भला क्यों समस्या होगी। हिंदी माध्यम में चिकित्सा और अभियांत्रिकी के मुद्दों को प्रसारित करने के लिए इस विषय को दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन, भोपाल में 'विज्ञान के क्षेत्र में हिंदी' विषय एक सत्र में चर्चा के लिए रखा गया। पूरे देश से इस पर अच्छे सुझाव आए और उनकी अनुपालना भी हुई। इन अनुशंसों की अनुपालना के लिए विदेश मंत्रालय ने मुझे अधिकृत किया। पिछले तीन वर्षों में जो इस दृष्टि से कार्य किया गया, उस पर ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन में प्रकाशित पुस्तक 'भोपाल से मॉरीशस तक' में विस्तार से चर्चा की गयी।
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श्री उमा कांत - प्रोफ़ेसर साहब, हिंदी में अनेकों शोध कार्य हो रहे हैं। यह शोधार्थियों का कार्य है। लेकिन देखने में आया है कि हिंदी में राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठीयाँ, सम्मेलन भी हो रहे हैं। इनकी हिंदी के विकास में क्या भूमिका है ?
प्रो॰ छीपा जी - देखिए, अभी राष्ट्रीय स्तर पर अलग-अलग विषयों की जितनी संगोष्ठी आयोजित की जा रही हैं और जो विशेष सम्मेलन अखिल भारतीय स्तर पर किए हो रहे हैं, उनमें हिंदी में शोध पत्र लिखने वालों की संख्या बढ़ रही है। इन शोध पत्रों के आधार पर शोध-पत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगी हैं। अब कई पत्रिकाएँ द्विभाषिक हो गयीं हैं। यूजीसी के द्वारा विभिन्न हिंदी माध्यम की शोध-पत्रिकाओं को मान्यता दी जाने लगी है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो विश्व हिंदी सम्मेलन हो रहे हैं, जहाँ पहले यह सम्मेलन हिंदी भाषा, साहित्य, कविता, नाटक, आलोचना के इर्द-गिर्द थे, अब अनेकों विषयों को स्थान मिलने लगा है। जैसे- विज्ञान के क्षेत्र में हिंदी, विधि के क्षेत्र में हिंदी, प्रशासन के क्षेत्र में हिंदी, संचार एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हिंदी आदि।
श्री उमा कांत - छीपा जी, सामान्यतः हिंदी के मामले में देखने में आया है कि हिंदी लेखकों का एक वर्ग यह आरोप लगाता रहा है कि अब हिंदी की पुस्तकों को लोग पढ़ते नहीं। इसलिए हिंदी पिछड़ रही है। आपका क्या मानना है ?
प्रो॰ छीपा जी - यद्यपि विद्यार्थियों की पुस्तकें पढ़ने की आदत कम हुई है, परंतु आज भी स्नातकोत्तर एवं शोध स्तर पर हिंदी की स्तरीय पुस्तकों का अभाव है। विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा से संबंधित विभिन्न वर्गों की पुस्तकें मिलेगी तो अवश्य पढ़ेंगे। इसलिए मुख्य प्राथमिकता विभिन्न विषयों की हिंदी माध्यम की स्तरीय पुस्तकों के लेखन एवं प्रकाशन की हो। इस दृष्टि से अटल बिहारी बाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय को पत्र लिखा। जिसने हमारे आग्रह को स्वीकार कर देश की सभी हिंदी ग्रंथ अकादमी को तीन वर्ष के लिए चिकित्सा, अभियांत्रिकी, विधि, प्रबंधन, योग आदि विषयों की पुस्तकें हिंदी में प्रकाशित करने हेतु उदारता पूर्वक अनुदान स्वीकृत किया है।
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श्री उमा कांत - क्या भारत में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए बिना विश्व हिंदी सम्मेलन की भूमिका भारत के संदर्भ में कुछ सार्थकता प्राप्त कर पाएगी अथवा नहीं?
प्रो॰ छीपा जी - यद्यपि हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला है, परंतु देश की अधिकांश जनता हिंदी बोलने वाली है। हिंदी भाषा को समझती है और कार्य व्यवहार करती है। सभी सरकारी संस्थानों ने हिंदी के राजभाषा होने के कारण अब हिंदी में कार्य करना प्रारंभ कर दिया है।केंद्र सरकार के सभी मंत्रालयों ने अपने-अपने वेब स्थल हिंदी में बना लिए हैं। इनसे जुड़े विभाग और संस्थानों ने भी वेब स्थल हिंदी में बनाना प्रारंभ कर दिया है। विश्व हिंदी सम्मेलनों में हिंदी साहित्य के साथ-साथ अन्य विषयों विज्ञान, अभियांत्रिकी, चिकित्सा, विधि, प्रबंधन आदि को जोड़ने से अन्य विषयों के विद्वान भी सम्मेलनों से जुड़ने लगे हैं तथा हिंदी में अपने-अपने विषय की बात करने लगे हैं। तकनीकी में भी हिंदी माध्यम से परिवर्तन होने लगे हैं। अब अणु डाक पते हिंदी में बनाये जा सकते हैं। विभिन्न भाषाओं से हिंदी में अनुवाद हो सकता है। हिंदी में बोलने पर हिंदी में टंकण हो सकता है। हिंदी के कई तरह की एप आने लगे हैं। इसलिए अब हिंदी मोबाइल मित्र बनने लगी है।
श्री उमा कांत - कुलपति जी, आज वैश्वीकरण के दौर में एक से अधिक भाषा का ज्ञान सभी भारतीयों के लिए जरूरी है। लेकिन अंग्रेजी भाषा ही एकमात्र विश्व की भाषा नहीं है। यह विचार भारतीयों तक आसानी से कैसे पहुंचाया जा सकता है ?
प्रो॰ छीपा जी - विश्व की जितनी भाषाएं हैं, उसमें अंग्रेजी का स्थान चौथा है। पहला मंदारिन (मंडेरियन), दूसरा स्पेनिश, तीसरा हिंदी (हिंदी से जुड़ी सभी भारतीय भाषाओं को हिंदी की श्रेणी में रखने पर), चौथा अंग्रेजी। जहां तक अंग्रेजी की बात है, अंग्रेजी का कोई विरोध नहीं है। वैश्वीकरण के दौर में सभी विदेशों से जुड़ना पड़ता है। हमें सभी विदेशी भाषाओं को भी अंग्रेजी के बराबर महत्त्व देना होगा, जैसे- जापानी, फ्रेंच, चीनी, जर्मनी, रशियन, हिब्रू, तुर्की आदि सभी जरूरी हैं। भारतीयों को अपनी भारतीय भाषाओं का ज्ञान भी जरूरी है।
प्राज्ञ साहित्य/नवम्बर 2018-जनवरी 2019/21
श्री उमा कांत - कुलपति जी, अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय अंग्रेजी को बढ़ावा देते हैं। लेकिन अक्सर ऐसा देखा जाता है कि इन अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में अध्यापक अथवा प्रबंधक बच्चों को अंग्रेजी तो पढ़ाते हैं, साथ ही उनका हिंदी बोलना प्रतिबंधित कर देते हैं। क्या ऐसा करना सही है ? यदि हां तो वे अंग्रेजी को बढ़ावा देने के साथ-साथ हिंदी के प्रति छात्रों के मन में कुंठा का भाव पैदा कर रह हैं। इससे कैसे बचा जा सकता है ?
प्रो॰ छीपा जी - भाषा संवाद का माध्यम ही नहीं है, बल्कि संस्कृति की वाहक भी है। जिस भाषा में शिक्षण होता है, उस भाषा से संबंधित संस्कृति भी प्रसारित होती है। अंग्रेजी भाषा को बढ़ाने से पाश्चात्य संस्कृति का विस्तार होगा। जिससे भारतीय संस्कृति पिछड़ती है। आज देश में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से विद्यार्थियों में तनाव, संघर्ष, अकेलापन, पारिवारिक भावना से दूर, परिवार से दूर आदि बुराइयां विकसित हो रही हैं। हिंदी भाषा के संवर्धन से भारतीय संस्कृति और भारतीय जीवन मूल्यों का विस्तार होगा। कुछ अंग्रेजी मानसिकता वाले शिक्षक एवं संस्थाएं इस तरह का व्यवहार करते हैं। परंतु उनके इस व्यवहार से बच्चे भारतीय जीवन मूल्यों से कट रहे हैं। उनमें बड़ों के प्रति कोई श्रद्धा नहीं रहती। वे एकांकी परिवार में विश्वास करने लगे हैं। स्वार्थ की भावना सर्वोपरि होने के कारण वे राष्ट्रीय भावना व समाज सेवा के विचार से दूर हो रहे हैं। इसलिए भारत को पुनः विश्वगुरु बनाने की दृष्टि से शिक्षा मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए।
श्री उमा कांत - प्रोफेसर साहब, कोई भी देश अपनी भाषा में कम श्रम करके अधिक प्रगति सकता है; विशेषकर शिक्षा और रोजगार के मामले में । आपका क्या मानना है ?
प्रो॰ छीपा जी - विश्व का इतिहास गवाह है कि जिस-जिस देश ने अपनी मातृभाषा के में कार्य किया और अपनी मातृभाषा को आगे बढ़ाया, वह विकसित हुआ तथा जिस देश ने अपनी भाषा की अवहेलना की, वह पिछड़ा है। आज दुनिया में चीन, जापान, रूस, जर्मनी, फ्रांस, इजराइल इन देशों ने जो प्रगति की है, वह अंग्रेजी भाषा के कारण नहीं की है। वे अपने-अपने क्षेत्र में अपनी मातृभाषा में शिक्षा के कारण ही आगे बढ़े हैं। जो शिक्षा मातृभाषा में होती है। विद्यार्थी उसमें अधिक चिंतन कर सकता है, अधिक सोच सकता है। मातृभाषा में शोध की भावना अधिक विकसित होती है। जो किसी विदेशी भाषा में संभव नहीं है। हिब्रू भाषा प्रायः मृत हो गयी थी। परंतु इजराइल ने उसको कब्र से निकालकर विकसित किया और कई नोबेल पुरस्कार प्राप्त किये।
प्राज्ञ साहित्य/नवम्बर 2018-जनवरी 2019/22
श्री उमा कांत - कुलपति जी, क्या कविता पढ़ना और सुनाना या उनकी किताब लिख कर प्रकाशित कराना ही हिंदी सेवा है या केवल हिंदी प्रेम के माध्यम से हिंदी के कमजोर पक्ष के चलते स्वयं को पहचान देना मात्र है ?
प्रो॰ छीपा जी - हिंदी भाषा के संवर्धन से तात्पर्य केवल साहित्य – रचना यथा- कथा, नाटक, आलोचना, काव्य आदि ही नहीं है। हिंदी की वास्तविक सेवा तब होगी, जब उसका प्रयोग प्रत्येक विषय में होगा। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हिंदी कार्य व्यवहार की भाषा होगी। हिंदी के विद्वानों को अन्य विषयों के विद्वानों से मिलकर उनके विषय को हिंदी में कैसे आगे बढ़ाया जाए; उनके हिंदी लेखन में शुद्धता कैसे बढ़े; उनका विभिन्न भाषाओं में अनुवाद कैसे ठीक हो; इस ओर बल देना चाहिए। साथ ही साथ विभिन्न भाषाओं के विषयों के शब्दकोश बनाने में मदद करनी चाहिए।
श्री उमा कांत - कुलपति जी, आप हमारे विद्वान पाठकों को हिंदी के विकास के संदर्भ क्या संदेश देना चाहते हैं ?
प्रो॰ छीपा जी - आपके पाठकों में सभी संस्थाओं, सभी वर्गों व सभी विषयों के लोग सम्मिलित हैं। इसलिए जो पाठक राजनीति क्षेत्र के हैं, उन्हें राजनीतिक इच्छाशक्ति विकसित करनी होगी और शीघ्र हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देना होगा। जो पाठक शिक्षा से जुड़े हुए हैं, उन्हें हिंदी में अध्ययन-अध्यापन व शोध को आगे बढ़ाना होगा। अन्य सभी क्षेत्र के पाठकों को अपने कार्य व्यवहार में हिंदी को बढ़ावा देना होगा। यह कार्य प्रत्येक पाठक को अपने स्वयं से करना होगा। इस प्रकार कोई पाठक हिंदी का उपयोग बढ़ाता है, तो वह अन्य लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत होगा।
श्री उमा कांत - कुलपति जी, मुझे आशा है कि आज का यह साक्षात्कार हिंदी को आगे बढ़ाने में और हिंदी के प्रति समाज के दृष्टिकोण को व्यापक बनाने में मील का पत्थर साबित होगा। साथ ही मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि ईश्वर आपको दीर्घायु प्रदान करें और आप निरंतर हिंदी की सेवा में लगे रहें। कुलपति जी, आपने अपने व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद मुझे अपना मूल्यवान समय दिया, इसके लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!
प्रो॰ छीपा जी - जी, हिंदी को विश्व की भाषा बनाने के लिए आज भारत में ऐसे सच्चे हिंदी साधकों की आवश्यकता है, जो वास्तविक रूप से हिंदी के प्रति पूर्ण समर्पित हों। इस पुनीत कार्य में लगे रहने के लिये आपको भी बहुत-बहुत धन्यवाद और शुभकामनाएँ।
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प्राज्ञ साहित्य/नवम्बर 2018-जनवरी 2019/23