राही हूँ कठिन रास्तों का
राही हूँ कठिन रास्तों का, रोको मत मुझको जाने दो।
सूरज ढलने से पहले, जग मग एक दीप जलाने दो।।
गिरि वृक्ष द्रुमों का यह कानन,
मेरे मन का बन आकर्षन,
कहता है पंथी रुक जाओ,
अपने पाँवों को सहलाओ,
सुन अविरल झरने की पुकार,
पल भर को रुक इक टक निहार,
ठिठका क्षण भर हो डग मग डग,
कुछ थके थके से बढ़ते पग,
थक गया रुका, जीती मुश्किल,
जो चला मिली उसको मंजिल,
संघर्ष रहा साथी मेरा, साहस से कदम बढ़ाने दो।
राही हूँ कठिन रास्तों का, रोको मत मुझको जाने दो।।
कुछ प्रश्न रहे हैं अनसुलझे,
सुलझाये उतने ही उलझे,
क्या पाप पुण्य की परिभाषा,
युग युग में बदली है भाषा,
पवन को दे सौरभ का दान,
फूल क्यों मुरझाते अम्लान,
अभावों में है मनुज उदास,
बढ़े धन, बढ़ती जाती प्यास,
प्राज्ञ साहित्य/नवम्बर 2018-जनवरी 2019/24
तृप्ति का कोई ओर न छोर,
रहे जब तक साँसों की डोर,
लेने में दुख, देने में सुख, मुझको सर्वस्व लुटाने दो।
राही हूँ कठिन रास्तों का, रोको मत मुझको जाने दो।।
दो सदा सभी को उचित मान,
रख लो संभाल, खुद स्वाभिमान,
पौरुष का पथ अवरुद्ध कहाँ,
जीते वीरों ने युद्ध यहाँ,
जो लिखा नहीं तकदीरों में,
अंकित है हाथ लकीरों में,
मन कहे बटोही चलता चल,
जग माया सृष्टि की हलचल,
कुछ जूझ रहे जीवन रण में,
जो सोये मंद समीरण में, उनको अब मुझे जगाने दो।
राही हूँ कठिन रास्तों का, रोको मत मुझको जाने दो।।
क्या देव लोक सुषमा फींकी,
या जगत की वसुधा नींकी,
नर रूप रखे सुर आते क्यों,
धरती नभ उन्हें रिझाते क्यों,
प्रभु ने तो सौंपी कोमलता,
बालक को निश्चल वत्सलता,
जब राग और ममता जागी,
बन गया मनुज तब अनुरागी,
यह मोह जाल फैलाया है,
अनुरागी को उलझाया है,
उलझे हैं यक्ष प्रश्न जग के, कुछ कुछ मुझे सुलझाने दो।
राही हूँ कठिन रास्तों का, रुको मत मुझको जाने दो।।
बोला नचिकेता कर प्रणाम,
यमराज ले चलो देव धाम,
प्राज्ञ साहित्य/नवम्बर 2018-जनवरी 2019/25
कब पाते चिर विश्राम प्राण,
दो जन्म मृत्यु का गूढ़ ज्ञान,
कब जीव जन्मता बार-बार,
किसको मिलता है मोक्ष द्वार,
मत पूछो, मत पूछो हिसाब,
है खुली हुई सब की किताब,
अपने अपने कर्मों का फल,
सारे प्रश्नों को करता हल,
परमार्थ मिले सत्कर्मों से, यह सत्य मुझे समझाने दो।
राही हूँ कठिन रास्तों का, रोको मत मुझको जाने दो।।
देवों की भू पर क्रीड़ा में,
युग बीत गये जग पीड़ा में,
उर निर्झर का कल कल आँसू,
या पीड़ा का मृदुजल आँसू,
जब कभी मूक होती वाणी,
कह जाता आँखों का पानी,
हिम शिखर वेदना झर झर कर,
बन देव नदी उतरी भू पर,
वरदान मिले या मिले शाप,
गंगा ने धोए सभी पाप,
कर लिया आचमन निर्मल जल, अब दीपक मुझे जलाने दो।
राही हूँ कठिन रास्तों का, रोको मत मुझको जाने दो।।
डॉ॰ अखिलेश चंद्र गौड़, कासगंज,उ0प्र0 (भारत)
प्राज्ञ साहित्य/नवम्बर 2018-जनवरी 2019/26