राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी
हिंदी का लगभग एक हजार वर्ष का इतिहास इस बात का साक्षी है कि हिंदी ग्यारहवीं शताब्दी से ही प्रायः अक्षुण्ण रूप से राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित रही है। चाहे राजकीय प्रशासन के स्तर पर कभी संस्कृत, कभी फरासी और बाद में अंग्रजी को मान्यता प्राप्त रही, किन्तु समूचे राष्ट्र के जन-समुदाय के आपसी सम्पर्क, संवाद-संचार, विचार-विमर्श, सांस्कृतिक ऐक्य और जीवन-व्यवहार का माध्यम हिन्दी ही रही।
ग्यारहवीं सदी में हिन्दी के आविर्भाव से लेकर आज तक राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की विकास परम्परा को मुख्यतः तीन सोपानों में बाँटा जा सकता है- आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक कालआदिकाल के आरम्भ में तेरहवीं सदी तक भारत में जिन लोक-बोलियों का प्रयोग होता था, वे प्रायः संस्कृत की उत्तराधिकारिणी प्राकृत और अपभ्रंश से विकसित हुई थीं। कहीं उन्हें देशी भाषा कहा गया, कहीं अवहट्ट और कहीं डींगल या पिंगल। ये उपभाषाएँ बोलचाल, लोकगीतों, लोक-वार्त्ताओं तथा कहीं-कहीं काव्य रचना का भी माध्यम थींबौत मत के अनुयायी भिक्षुओं, जैन-साधुओं, नाथपंथियों जोगियों और महात्माओं ने विभिन्न प्रदेशों में धूम-धूम कर वहाँ की स्थानीय बोलियों या उपभाषाओं में अपने विचार और सिद्धान्तों को प्रचारित-प्रसारित किया। असम और बंगाल से लेकर पंजाब तक और हिमालय से लेकर महाराष्ट्र तक सर्वत्र इन सिद्व-साधुओं, मुनियों योगियों ने जनता के मध्य जिन धार्मिकआध्यात्मिक-सांस्कृतिक चेतना का संचार किया उसका माध्यम लोक-बोलियाँ या जन-भाषाएँ ही थीं, जिन्हें पण्डित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, राहुल सांकृत्यायन तथा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वानों ने 'पुरानी हिन्दी का नाम दिया हैइन्हीं के समानान्तर मैथिली-कोकिल विद्यापति ने जिस सुललित मधुर भाषा में राधाकृष्ण–प्रणय सम्बन्धी सरस पदावली की रचना की, उसे उन्होंने 'देसिल बअना' (देशी भाषा) या 'अवहट्ट' कहापंजाब के अट्टहमाण ( अब्दुर्रहमान) ने 'संदेश रासक' की रचना परवर्ती अपभ्रंश में की, जिसे पुरानी हिन्दी का ही पूर्ववर्ती रूप माना जा सकता है। रासो काव्यों की भाषा डिंगल मानी गई जो वास्तव में पुरानी हिन्दी का ही एक प्रकार है। सबसे पहले इसी पुरानी हिन्दी को 'हिन्दुई', हिन्दवी', अथवा 'हिन्दी' के नाम से पहचान दी अमीर खुसरो ने।
वस्तुतः आदिकाल में लोक-स्तर से लेकर शासन स्तर तक और सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र से लेकर साहित्यिक क्षेत्र तक हिन्दी राष्ट्रभाषा की कोटि की ओर अग्रसर हो रही थी
मध्यकाल में भक्ति आन्दोलन के प्रभाव से हिन्दी भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक जनभाषा बन गई। भारत के विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों में सांस्कृतिक ऐक्य के सूत्र होने का श्रेय हिन्दी को ही है। दक्षिण के विभिन्न दार्शनिक आचार्यों ने उत्तर भारत में आकर संस्कृत का दार्शनिक चिन्तन हिन्दी के माध्यम से लोक-मानस में संचारित किया। दूसरे शब्दों में कहें तो हिन्दी व्यावहारिक रूप से राष्ट्रभाषा बन गई।
आधुनिक काल में हिन्दी भारत की राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक बन गईवर्षों पहले अंग्रेजों द्वारा फैलाया गया भाषाई कूटनीति का जाल हमारी भाषा के लिए रक्षाकवच बन गया। विदेशी अंग्रेजी शासकों को समूचे भारत राष्ट्र में जिस भाषा का सर्वाधिक प्रयोग, प्रसार और प्रभाव दिखाई दिया, वह हिन्दी थी, जिसे वे लोग हिन्दुस्तानी कहते थे। चाहे पत्रकारिता का क्षेत्र हो चाहे स्वाधीनता संग्राम का, हर जगह हिन्दी ही जनता के भाव-विनिमय का माध्यम बनी। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गाँधी सरीखे राष्ट्र-पुरुषों ने राष्ट्रभाषा हिन्दी के ही जरिए समूचे राष्ट्र से सम्पर्क किया और सफल रहै। तभी तो आजादी के बाद संविधान सभा ने बहुमत से 'हिन्दी को राजभाषा का दर्जा देने का निर्णय लिया था।
भारत की राष्ट्रभाषा के सम्बन्ध में महात्मा गांधी ने इंदौर में 20 अप्रैल 1935 को हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चौबीसवें अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए कहा था : 'अंग्रेजी राष्ट्रभाषा कभी नहीं बन सकती। आज इसका साम्राज्य-सा जरूर दिखाई देता है। इससे बचने के लिए काफी प्रयत्न करते हुए भी हमारे राष्ट्रीय कार्यों में अंग्रेजी ने बहुत स्थान ले रखा है लेकिन इससे हमें इस भ्रम में कभी न पड़ना चाहिए कि अंग्रेजी राष्ट्रभाषा बन रही है। इसकी परीक्षा प्रत्येक प्रान्तों में हम आसानी से करते हैंबंगाल अथवा दक्षिण भारत को ही लीजिए, जहाँ अंग्रेजी का प्रभाव सबसे अधिक है। वहाँ यदि जनता की मार्फत हम कुछ भी काम करना चाहते हैं तो वह आज हिन्दी द्वारा भले ही न कर सकें, पर अंग्रेजी द्वारा कर ही नहीं सकते। हिन्दी के दो-चार शब्दों से हम अपना भाव कुछ तो प्रकट कर ही देंगेपर अंग्रेजी से तो इतना भी नहीं कर सकते। हिन्दुस्तान को अगर सचमुच एक राष्ट्र बनाना है तो– चाहे कोई माने या न माने- राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही बन सकती है, क्योंकि जो स्थान हिन्दी को प्राप्त है वह किसी दूसरी भाषा को कभी नहीं मिल सकता।'
संविधान सभी द्वारा राजभाषा सम्बन्धी निर्णय होने के कुछ सप्ताह बाद ही एक समारोह के लिए तत्कालीन उप–प्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने 23 अक्तूबर, 1949 के अपने संदेश में लिखा था : 'विधान परिषद् ने राष्ट्रभाषा के विषय में निर्णय कर लिया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कुछ व्यक्तियों को इस फैसले से दुःख हुआ। कुछ संस्थानों ने भी इसका विरोध किया है। परन्तु जिस प्रकार और बातों में मतभेद हो सकता है, उसी प्रकार इस विषय में यदि मतभेद है और रहे तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। विधान में कई ऐसी बातें हैं जिनसे सबका संतोष होना असंभव है। परन्तु एक बार यदि विधान में कोई चीज़ शामिल हो जाए तो उसको स्वीकार कर लेना सबका कर्तव्य है, कम-से-कम जब तक कि ऐसी स्थिति पैदा न हो जाए जिसमें सर्वसम्मति से या बहुमत से फिर कोई तब्दीली हो सके। अब जबकि हिन्दी को राष्ट्रभाषा की पदवी मिल गई है (यद्यपि कुछ वर्षों के लिए एक विदेशी भाषा के साथ-साथ उसको यह गौरव प्राप्त हुआ है), हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि राष्ट्रभाषा की उन्नति करे और उसकी सेवा करे जिससे कि सारे भारत में वह बिना किसी संकोच या संदेह के स्वीकृत हो। हिन्दी का पट महासागर की तरह विस्तृत होना चाहिए जिसमें मिलकर और भाषाएँ अपना बहुमूल्य भाग ले सकें। राष्ट्रभाषा न तो किसी प्रान्त की है न किसी जाति की है, वह सारे भारत की भाषा है और उसके लिए यह आवश्यक है कि सारे भारत के लोग उसको समझ सकें और अपनाने का गौरव हासिल कर सकें।'