गांधीवादी हिन्दी सेवक एवं साहित्यकार : जयनारायण रॉय
जयनारायण रॉय (8.9.1908- 2.12.1986) का भारत और भारतीय संस्कृति के प्रति आकर्षण न अचानक था और ना ही उनके भारत में १२ वर्षों (1925-1937) की बनारस तथा इलाहाबाद में शिक्षा के बाद ही था। घरेलू वातावरण से बालक जयनारायण को हिन्दी संस्कार और भारतीयता पिता रामलाल सिंह से प्राप्त होने लगी थी।1913 में पाँच वर्ष की उम्र में जयनारायण रॉय अपने गांधीवादी पिता रामलाल सिंह द्वारा हिन्दी भाषा में दीक्षित किए गए' वे हिन्दीमय वातावरण में पले-बड़े हुए थे। ऐसे में उनके भीतर भारतीय संस्कृति का बीज धीरे - धीरे विकसित हुआ। उनका चरित्र - निर्माण उनके गांव बो शां के घर से शुरू हुआ।
महात्मा गांधी की तरह जयनारायण रॉय हिन्दी के समर्थक थे (पृष्ठ 4, इन्द्रधनुष 1996) 'आपकी इच्छा थी कि हिन्दी भाषा घर-घर में, बैठकाओं में, सामाजिक व धार्मिक अनुष्ठानों में बोली जाए' (पृष्ठ 31, पंकज 2004)
57 वर्ष के संपादक पं० आत्माराम ने 29 वर्षीय जयनारायण रॉय को प्रेरित हुए लिखा था
'जयनारायण रॉय के लिए हिन्दी भाषा एक कार्यक्षेत्र हो सकता है। क्या भारत के आन्दोलन की प्रतिध्वनि की अपेक्षा मॉरीशस में भाषा आन्दोलन उचित नहीं होगा?'
जयनारायण रॉय ने हिन्दी की अपनी संस्था नहीं खोली। 'हिन्दी के लिए 1926 से (तिलक विद्यालय के लिए ) हिन्दी प्रचारिणी सभा के साथ सूरूज प्रसाद मंगर भगत से जा मिले । उनके साथ उनके दो मित्र उमाशंकर गिरजानंद और जगदत्त भी थे' (पृष्ठ 5, पंकज,1998) 'वे 1952 से 1977 तक हिन्दी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष रहे और हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया' (पृष्ठ 4, पंकज 1998) 'वे हिन्दी प्रचारिणी सभा के प्राण थे और शुद्ध भाषा के प्रचारक' (पृष्ठ 6, पंकज 1998)।
इस महान व्यक्ति ने सभा पर अपनी 'सज्जनता, विद्वता, सेवा-कार्य का जो प्रभाव छोड़ा है वह आज अमीट है' (पंकज 2009), जयनारायण रॉय इलाहाबाद में पढ़े-लिखे थे। उन्होंने अपने संपर्क से हिन्दी प्रचारिणी सभा में प्रयाग हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा प्रवेशिका से उत्तमा तक की साहित्य की पढ़ाई व परीक्षाएं शुरू करवाई ‘फलस्वरूप 1946 में सम्मेलन की प्रथम परीक्षा 'हिन्दी परिचय' का आयोजन हुआ' (पृष्ठ, वही)
हिन्दी प्रचारिणी सभा से मिलकर उन्होंने लगभग 300 हिन्दी पाठशालाएँ खुलवायीं और उनका संचालन किया' (पृष्ठ 17, वही) छात्र- छात्राओं को मौलिकता लेखन और सृजन की ओर आकर्षित किया। मौलिक रचनाओं पर प्रमाण पत्र, पुरस्कार की व्यवस्था कराई। ‘साथ ही 30000 छात्र-छात्राओं के कार्य का निरीक्षण-परीक्षण वे स्वयं करते थे। (पृष्ठ 8, वही) । उन्हीं के प्रधानत्व में हिन्दी प्रचारिणी सभा का विकास हुआ। इससे कार्यक्षेत्र में विविधता आई। 'देश के विभिन्न भागों में सभा की शाखाएँ खुलीं, सभा में शनिवारीय और रविवारीय कक्षाएँ चालू हुई, निबंध, लेख, कहानी प्रतियोगिताएँ शुरू हुई' (पृष्ठ 12,वही)।
'वे (जयनारायण रॉय) विशुद्ध रूप से मॉरीशस में गांधीवादी हिन्दी सेवक एवं साहित्यकार माने जाते हैं' (पृष्ठ 7, पंकज 1998) 1941 में 'जीवन संगिनी' एकांकी लिखकर ‘मॉरीशस के प्रथम नाटककार सिद्ध हुए और हिन्दी नाटक रंगमंच पर भी खेले गए' (पृष्ठ 8, इन्द्रधनुष, 1996) 'जयनारायण रॉय’ एक बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार थे' (पृष्ठ 9, वही) 'उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं में कलम चलाई (पृष्ठ 9, वही) वे इस देश के प्रशस्त लेखक थे। अंग्रेज़ी और हिन्दी दोनों भाषाओँ में उन्होंने अनेक लेख लिखे। उनका प्रथम लेख ‘मॉरीशस मित्र' में छपा था। 1931 का यह लेख सार्वजनिक चुनाव पर था। वे सदैव सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक आदि विषयों पर देश के दर्जनों पत्रों में' (पृष्ठ 12, वही) छप रहे थे। उनकी प्रथमं कृति 1938 में छपी थी। ‘क्या है मॉरीशस के भारतीय' (पृष्ठ , वही) और ‘पहली कविता 'मॉरीशस-मित्र' 1923 में छपी थी' (पृष्ठ 4, पंकज 1998)
उनका प्रकाशित साहित्य इस प्रकार है -
1. Wiser Indo Mauritian, 1936
2. Towards Upliftment
3. जीवन-संगिनी, 1941
4. Constitutional Proposals, 1945
5. Mauritius in Transition
6. When the tears mingle, 1962
7. मॉरीशस में हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, 1965 ‘जयनारायण रॉय इस देश के सशक्त लेखक थे' (पृष्ठ 21, इन्द्रधनुष)
जयनारायण रॉय अपने छात्रकाल में कलकत्ता की आनंद बाज़ार पत्रिका में लिखते थे। उनके लेख स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में छपते ही थे, जैसे- 'मॉरीशस मित्र', 'मॉरीशस आर्य पत्रिका', 'ले रजिकाल', 'ले मोरिशयन', 'जनता', 'आर्योदय', 'अडवांस', 'लेव', 'समाज वाद', 'नवजीवन', 'लेक्सप्रेस', 'Mauritius Times' आदि। जयनारायण रॉय ने मॉरीशस में पत्र भी निकाला। उन्होंने विचारों के प्रचार हेतु '1940 में 'अडवांस' अंग्रेज़ी-फ्रेंच दैनिक तथा अर्ध हिन्दी साप्ताहिक 'जनता' की स्थापना 7 मई 1947 में की' (पृष्ठ 30, इन्द्रधनुष 1996) 1947-1955 तक जनता के संपादक रहे । जयनारायण रॉय एक यशस्वी पत्रकार थे । पत्रकारिता के ज़रिये उन्होंने देश के भारतवंशियों को एक पहचान दी।
1937 में इस देश में हिन्दी आन्दोलन से जुड़े श्री जयनारायण रॉय ने विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे आयोजन का सपना देखा था' (पृष्ठ 3 ,इन्द्रधनुष 1996) हिन्दी प्रचारिणी सभा ने जयनारायण रॉय की देख-रेख में 'हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह और प्रेमचंद सप्ताह जैसे समारोहों का आयोजन किया । (पृष्ठ 36, पंकजअगस्त 2009) 7 दिसम्बर 1941 को हिन्दू महासभा पोर्ट लुईस में प्रथम साहित्य सम्मेलन का आयोजन हुआ। हिन्दी प्रचारिणी सभा द्वारा सम्पन्न इसी अवसर पर ‘जीवन संगिनी' देश के प्रथम एकांकी का प्रकाशन हुआ था। 1965 में उन्होंने प्रथम अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें भारत के प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर जी आए थे । (पृष्ठ 30, वही) इस सम्मेलन में कवि हरिवंशराय बच्चन और शिवमंगल सिंह सुमन ने भी सहयोग किया था। (पृष्ठ 6, सूत्र पंकज 1998) 1969 में आर्य सभा के साथ मिलकर जयनारायण रॉय ने हिन्दी प्रचारिणी सभा की अध्यक्षता में देश भर में हिन्दी सप्ताह का आयोजन किया था।
28 अगस्त 1976, द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन मॉरीशस में हुआ। सम्मेलन का उद्घाटन भाषण जयनारायण रॉय के द्वारा ही हुआ था। इन्हें प्रस्तुत करते हुए डॉ धर्मवीर भारती ने कहा था- हिन्दी के साधक ने हिन्दी का तुमुल संघर्ष यहाँ किया है। जयनारायण रॉय जी से प्रार्थना करूँगा कि वे यहाँ आयें और अपने वक्तव्य से गोष्ठी का प्रारंभ करें। (पृष्ठ 13, इन्द्रधनुष 1996) जयनारायण रॉय के प्रथम वाक्य से पंडाल गूंज उठा था। 'हिन्दी यहाँ अंग्रेज़ी की तरह तलवार की ताकत बनकर नहीं आई। यह उपनिषद, रामायण और गीता की बेटी बनकर आई' (पृष्ठ 13,वही)
एक बार हिन्दी प्रचारिणी सभा की अंतरंग कमीटी में जयनारायण रॉय ने गंगा तालाब जाने वाले कठिन रास्ते की मरम्मत का प्रस्ताव रख दिया था और पैसा कहाँ से आए यह भी बतला दिया था। मॉरीशस का कोई क्षेत्र उनकी सेवा से अछूता नहीं रहा । भाषा, शिक्षा, श्रम, राजनीति, धर्म, संस्कृति, साहित्य, मानवसेवा, पाठ्य-पुस्तक निर्माण, हिन्दी का विकास, प्रकाशन, परीक्षा, संपादन आदि
'वे एक ऐसे बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे, जिनको भिन्न-भिन्न कोनों से देखने पर अलग-अलग रूपों में पूर्ण दिखाई देते हैं।' (पृष्ठ 5,वसंत 1998) 1967 में मॉरीशस में सेवा कार्य के लिए आ रहे स्वामी कृष्णानंद जी से पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी ने कहा था- 'वहाँ (मॉरीशस में) मैं केवल दो व्यक्तियों को जानता हूँ जो हिन्दी की तुन-तुनी बजा रहे हैं - सूरूज प्रसाद मंगर भगत और जयनारायण रॉय, आप (स्वामी कृष्णानंद) उनसे अवश्य मिलें । उनको जागृत करें और उनको प्रेरणा दें' (फिरोज़ाबाद आग्रा, अगस्त 1967)
लेखक -राज हीरामन,मॉरीशस