हिंदी को लागू कराने वाले आवश्यक तथ्य (विश्व हिंदी दिवस पर विशेष)

हिंदी को लागू कराने वाले आवश्यक तथ्य


(भारत के संदर्भ में)



उमा कान्त, भारत 


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आज भारत अनेक राष्ट्रों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहा है परंतु यह निर्विवाद सत्य है कि भारत ही एक ऐसा राष्ट्र है जो घरेलू स्तर पर कूटनीतिक तौर से अपनी भाषा हिंदी को बढ़ावा देने एवं अंग्रेजी भाषा को त्यागने में असफल हुआ है। जिसके पीछे एक मुख्य कारण तत्कालीन देश की राजनीतिक शक्तियों का अंग्रेजी के प्रति अनुराग और हिंदी के प्रति हीन मानसिकता है। इस प्रकार देश की आजादी के बाद हिंदी राजनीतिक शक्तियों की उपेक्षा की शिकार हुई। हिंदी आज भी भारत में अपने महत्त्व को समझने में सफल न हो सकी है और लोग इसे दया एवं हेय की दृष्टि से ही देखते रहे हैं; परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी राष्ट्र की पहचान के लिए राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गीत एवं राष्ट्रीय भाषा का होना अति आवश्यक होता है। भारत के पास राष्ट्रीय ध्वज है, राष्ट्रीय गीत है; परंतु अपनी राष्ट्रीय भाषा नहीं है। ऐसे में बिना भाषा के  कोई देश भाषिक आधार पर विश्व में सम्मानित स्थान कैसे पा सकता है।



भारत को विश्व में भाषिक आधार पर सम्मान दिलाने के लिए हमें हिंदी के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। देश में हिंदी को वास्तविक रूप में लागू करने के लिए निम्न तथ्यों पर विचार करना होगा। 



आज हिंदी भारत में तब तक पूरी तरह नहीं फैल सकती, जब तक वह वहां के रोजी-रोटी, रोजगार, शिक्षा, पुस्तकों, टेक्नोलॉजी, सुरक्षित भविष्य एवं परीक्षाओं का पूरी तरह माध्यम न हो। इसके अतिरिक्त हिंदी को उसके विश्वव्यापी स्वरूप से भी समाज को अवगत कराना होगा और अंग्रेजी के प्रति बढ़ रहे अनुराग और गलतफहमियों को समाप्त करने के लिए अंग्रेजी के नकारात्मक पहलुओं से समाज को रूबरू कराना होगा।



आज आवश्यकता है कि रोजी-रोटी का माध्यम हिंदी हो। सभी सरकारी एवं गैर सरकारी रोजगारों का माध्यम हिंदी हो। हिंदी माध्यम में बेहतर शिक्षा व्यवस्था की जाए, जिसके लिए हिंदी के सरलीकरण के साथ-साथ उसमें उत्कृष्ट स्तरीय पुस्तकों का निर्माण हो। चिकित्सा एवं तकनीक सहित समस्त प्रकार की व्यावसायिक उत्कृष्ट पुस्तकों का निर्माण हिंदी माध्यम में हो। सभी प्रकार की टेक्नॉलॉजी के साथ हिंदी का तारतम्य स्थापित किया जाए। लोगों के भविष्य से जुड़ी सभी योजनाओं के माध्यम हिंदी हों। विद्यालयों की मान्यता का माध्यम हिंदी हो। अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय जो छात्रों को हिंदी बोलने से रोकते हैं, उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही होनी चाहिए।  अंग्रेजी माध्यम के सभी विद्यालयों का माध्यम भी हिंदी ही हो, इसके लिए समाज द्वारा पहल की जानी चाहिए।



यह सुखद विषय है कि विश्व पटल पर हिंदी का महत्त्व दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है। अतः आज सभी भारतीयों को यह बात भी भलीभांति समझ लेनी चाहिए कि हिंदी विश्वव्यापी भाषा के रूप में सभी मानदंडों पर खरी उतरने वाली भाषा है। हिंदी सबसे अधिक लोगों द्वारा बोले जाने वाली विश्व की सबसे बड़ी दूसरी भाषा है। यह कंप्यूटर के अनुरूप एक वैज्ञानिक भाषा है। क्योंकि यह व्याकरणीय नियमों पर खरी उतरने वाली भाषा है। बाजार में कई हिंदी के सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं। विश्व के सैकड़ों विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है। अनेक देशों के छात्र भारत में आकर हिंदी की पढ़ाई कर रहे हैं। भारतीयों को पता होना चाहिए कि विश्व  उन्हें भारतीयों के रूप में ही पहचानता है। वह उनसे उनकी हिंदी भाषा की अपेक्षा करता है अथवा वैश्विक भाषिक परिपक्वता के रूप में वह राष्ट्र भारतीयों से उसके देश की भाषा की अपेक्षा करता है, न कि किसी तीसरी भाषा की। जब सन् 1947 में विजयलक्ष्मी पंडित सोवियत संघ में भारत की राजदूत बनायी गयी; तो मॉस्को में जोसफ स्टालिन को उन्होंने अपना अंग्रेजी में लिखा प्रत्यय पत्र दिखाया; तो जोसफ स्टालिन ने कहा कि यह भाषा न तो आपके देश की भाषा है और न ही मेरे देश की। कहते हैं कि इस घटना का यह प्रभाव पड़ा कि स्टालिन ने विजयलक्ष्मी पंडित के ढाई साल के कार्यकाल के दौरान उन्हें कभी तवज्जो नहीं दी और वे भारत को अंग्रेजी का पिट्ठू समझते रहे। अतः कूटनीतिक दृष्टि से भी भारतीयों को हिंदी ही विश्व पटल पर सम्मान दिला सकती है, अंग्रेजी नहीं। यह बात समस्त भारतीयों को भलीभांति समझ लेनी चाहिए।



आज समय आ गया है कि  भारतीय अंग्रेजी को वैश्विक भाषा समझने की गलतफहमी से बाहर निकलें। यह विश्व में बहुत कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। यह व्याकरणिक दृष्टि से अपवादों की भाषा है; जो कंप्यूटर के अनुरूप किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं बैठती। कंप्यूटरों द्वारा अंग्रेजी को अपनाना कंप्यूटरों द्वारा अंग्रेजी को ढोने जैसा ही है। अंग्रेजी तनावों की भाषा भी है; जिसमें आत्मीयता का नितांत अभाव है। अंग्रेजों ने अंग्रेजी जहां-जहां फैलायी। वहां-वहां पर विघटन ही हुए। विश्व में अनेक ऐसे राष्ट्र हैं, जहां अंग्रेजों ने शासन किया और अंग्रेजी फैलायी; उन्होंने इस पराधीनता की भाषा को पूरी तरह त्याग दिया है। उन देशों से अंग्रेजी में बात करने पर उत्तर की भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। दूसरी तरफ भारतीय हैं जो आजादी के 70 वर्ष से अधिक हो जाने के बाद भी पराधीनता की पहचान बन चुकी अंग्रेजी के पिछलग्गू बने हुए हैं। इससे यह प्रकट होता है कि  भारत के लोग गुलामी वाली सोच से बाहर नहीं आ पा रहे हैं। अंग्रेजी उच्चारण की दृष्टि से बहुमेल खिचड़ी भाषा है। इसके उच्चारण से जो अंतर प्रगट होता है वह इसी बात का प्रमाण है। अतः कहा जा सकता है कि अंग्रेजी वैश्विक भाषा के रूप में खरी नहीं उतरती है और विश्व के सीमित राष्ट्रों तक बोली जाने वाली ही भाषा है। हां यह अवश्य है कि वह अन्य विदेशी भाषाओं की तरह भारतीयों के लिए एक विदेशी भाषा है। यह बात अलग है कि रोमन लिपि अनेकों भाषाओं की लिपि भी है, जिसे अधिकांश भारतीय लिपि की भ्रमिता के चलते भारत में बैठे-बैठे उन भाषाओं को भी अंग्रेजी ही समझते हैं और उसे विश्व स्तर की भाषा की झूठी उपाधि से अलंकृत करते रहते हैं।



आज अंग्रेजी ने भारत में अनेक नकारात्मक प्रभाव भी छोड़ने शुरू कर दिए हैं। भारत में अपवादों की वजह से अंग्रेजी को पढ़ने वाले छात्र केवल रट्टू तोता बनकर रह गए हैं।क्योंकि उसमें छात्र अपवादों को ही समझने में लगे रहते हैं। इसके अतिरिक्त अंग्रेजी के चलते छात्र हिंदी की गिनती तक से अनभिज्ञ होते जा रहे हैं। इससे यह पता चलता है कि एक तरफ अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों द्वारा हिंदुस्तानी हाड़-मांस वाले अंग्रेज भारत में ही तैयार किए जा रहे हैं, जो मानसिक रूप से पूरी तरह अंग्रेज हैं। अतः आज भी भारतीय अपनी आजादी के 70 से अधिक वर्ष बाद भी मैकाले के सपने को पूरा करने में लगे हुए हैं। दूसरी तरफ इससे यह सिद्ध होता है कि अंग्रेजी पढ़ने वाले जब भारतीय छात्र हिंदी की बारीकियों को नहीं समझ पा रहे हैं; तो हिंदी की बारीकियों को विदेशी भी नहीं समझ सकते। अतः हिंदी सामरिक दृष्टि से भी भारतीयों के लिए महत्वपूर्ण भाषा है।



वर्तमान में भारत ने विश्व के सबसे बड़े बाजारों में से एक होने के बावजूद विकसित राष्ट्रों के सफल सूत्र एकल कर प्रणाली को अपनाया है। यह एकल कर प्रणाली भिन्न-भिन्न प्रकार के कर तनावों से मुक्ति देती है। साथ ही किसी देश की एकजुटता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अतः वक्त आ गया है कि विकसित राष्ट्रों के सूत्र एकल भाषा प्रणाली को भी भारतीयों को अपनाना चाहिए ताकि विकसित राष्ट्र बनने की ओर भारत एक कदम और आगे बढ़ सके।


 


लेखक परिचय-


उमा कांत,


हिंदी शिक्षाविद् व विचारक


एवं प्रकाशक व संपादक


'प्राज्ञ साहित्य'


(अंतरराष्ट्रीय संदर्भित त्रैमासिक हिंदी शोध एवं प्रचार पत्र)