सत्यार्थप्रकाशः
-महर्षि दयानन्द सरस्वती
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सत्यार्थप्रकाशसूचीपत्रम्
पूर्वार्द्धः
भूमिका
प्रथमसमुल्लासः
ईश्वरनामव्याख्या
मङ्गलाचरणसमीक्षा
द्वितीयसमुल्लासः
बालशिक्षाविषयः
भूतप्रेतादिनिषेधः
जन्मपत्रसूर्यादिग्रहसमीक्षा
तृतीयसमुल्लासः
अध्ययनाध्यापनविषयः
गुरुमन्त्रव्याख्या
प्राणायामशिक्षा
सन्ध्याग्निहोत्रोपदेशः
यज्ञपात्राकृतयः
उपनयनसमीक्षा
ब्रह्मचर्योपदेशः
ब्रह्मचर्यकृत्यवर्णनम्
पञ्चधा परीक्ष्याध्ययनाध्यापने
पठनपाठनविशेषविधिः
ग्रन्थप्रामाण्याप्रामाण्यविषयः
स्त्रीशूद्राध्ययनविधिः
चतुर्थसमुल्लासः
समावर्त्तनविषयः
दूरदेशे विवाहकरणम्
विवाहे स्त्रीपुरुषपरीक्षा
अल्पवयसि विवाहनिषेधः
गुणकर्मानुसारेण वर्णव्यवस्था
विवाहलक्षणानि
स्त्रीपुरुषव्यवहारः
पञ्चमहायज्ञाः
पाखण्डितिरस्कारः
प्रातरुत्थानम्
पाखण्डिलक्षणानि
गृहस्थधर्माः
पण्डितलक्षणानि
मूर्खलक्षणानि
पुनर्विवाहविचारः
नियोगविषयः
गृहाश्रमश्रैष्ठ्यम्
पञ्चमसमुल्लास:
वानप्रस्थाश्रमविधिः
संन्यासाश्रमविधिः
षष्ठसमुल्लासः
राजधर्मविषयः
सभात्रयकथनम्
राजलक्षणानि
दण्डव्याख्या
राजकर्त्तव्यम्
अष्टादशव्यसननिषेधः
मन्त्रिदूतादिराजपुरुषलक्षणानि
मन्त्र्यादिषु कार्यनियोगः दुर्गनिर्माणव्याख्या
युद्धकरणप्रकारः राज्यरक्षणादिविधिः
ग्रामाधिपत्यादिवर्णनम्
करग्रहणप्रकार:
मन्त्रकरणप्रकारः
आसनादिषाड्गुण्यव्याख्या
राज्ञो मित्रोदासीनशत्रुषु वर्त्तनम्
शत्रुभिर्युद्धकरणप्रकारश्च
व्यापारादिषु राजभागकथनम्
अष्टादशविवादमार्गेषु धर्मेण न्यायकरणम्
साक्षिकर्त्तव्योपदेशः
साक्ष्यानृते दण्डविधिः
चौर्यादिषु दण्डादिव्याख्या
सप्तमसमुल्लासः
ईश्वरविषयः
ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनाः
ईश्वरज्ञानप्रकारः
ईश्वरस्यास्तित्वम्
ईश्वरावतारनिषेधः
जीवस्य स्वातन्त्र्यम्
जीवेश्वरयोभिन्नत्ववर्णनम्
ईश्वरस्य सगुणनिर्गुणकथनम्
वेदविषयविचारः
अष्टमसमुल्लासः
सृष्ट्युत्पत्त्यादिविषयः
ईश्वरभिन्नाया प्रकृतेरुपादानकारणत्वम्
सृष्टौ नास्तिकमतनिराकरणम्
मनुष्याणामादिसृष्टे: स्थानादिनिर्णयः
आर्यम्लेच्छादिव्याख्या
ईश्वरस्य जगदाधारत्वम्
नवमसमुल्लासः
विद्याऽविद्याविषयः
बन्धमोक्षविषयः
दशमसमुल्लासः
आचाराऽनाचारविषयः
भक्ष्याऽभक्ष्यविषयः (इति पूर्वार्द्धः)
उत्तरार्द्धः
अनुभूमिका
एकादशसमुल्लासः
आर्यावर्त्तदेशीयमतमतान्तरखण्डनमण्डनविषय:
मन्त्रादिसिद्धिनिराकरणम्
वाममार्गनिराकरणम्
अद्वैतवादसमीक्षा
भस्मरुद्राक्षतिलकादिसमीक्षा
वैष्णवमतसमीक्षा
मूर्तिपूजासमीक्षा
पञ्चायतनपूजासमीक्षा
गयाश्राद्धसमीक्षा
जगन्नाथतीर्थसमीक्षा
रामेश्वरसमीक्षा
कालियाकन्तसोमनाथादिसमीक्षा
द्वारिकाज्वालामुखीसमीक्षा
हरद्वारबदरीनारायणादिसमीक्षा
गङ्गास्नानादिसमीक्षा
तीर्थशब्दस्यार्थः
गुरुमाहात्म्यसमीक्षा
अष्टादशपुराणसमीक्षा
शिवपुराणसमीक्षा
भागवतसमीक्षा
सूर्यादिग्रहपूजासमीक्षा
और्ध्वदैहिक-दानादिसमीक्षा
एकादश्यादिव्रतसमीक्षा
मारणमोहनोच्चाटनवाममार्गसमीक्षा
शैवमतसमीक्षा
शाक्तवैष्णवमतसमीक्षा
कबीरपन्थसमीक्षा
नानकपन्थसमीक्षा
दादूपन्थसमीक्षा
गोकुलिगोस्वामिमतसमीक्षा
स्वामिनारायणमतसमीक्षा
माध्वलिङ्गाङ्कितब्राह्मप्रार्थनासमाजादिसमीक्षा
आर्यसमाजविषयः
तन्त्रादिविषयकप्रश्नोत्तराणि
ब्रह्मचारिसंन्यासिसमीक्षा
आर्यावर्तीयराजवंशावली
अनुभूमिका
द्वादशसमुल्लासः
नास्तिकमतसमीक्षा
चारवाकमतसमीक्षा
चारवाकादिनास्तिकभेदाः
बौद्धसौगतमतसमीक्षा
जैनबौद्धयोरैक्यम्
आस्तिकनास्तिकसंवादः
जगतोऽनादित्वसमीक्षा
जैनमते भूमिपरिमाणम्
जीवादन्यस्य जडत्वं पुद्गलानां
पापे प्रयोजकत्वं च
जैनधर्मप्रशंसादिसमीक्षा
जैनमतमुक्तिसमीक्षा
जैनसाधु-लक्षणसमीक्षा
जैन (२४) तीर्थङ्कर व्याख्या
जैनमते जम्बूद्वीपादिविस्तारः
अनुभूमिका
त्रयोदशसमुल्लासः
कृश्चीनमतसमीक्षा
लैव्यव्यवस्थापुस्तकम्
गणनापुस्तकम्
समुएलाख्यस्य द्वितीयं पुस्तकम्
राज्ञां पुस्तकम्
कालवृत्तस्य पुस्तकम्
ऐयूबाख्यस्य पुस्तकम्
उपदेशस्य पुस्तकम्
मत्तीरचितं इञ्जीलाख्यम्
मार्करचितं इञ्जीलाख्यम्
लूकरचितं इञ्जीलाख्यम्
योहनरचितसुसमाचार:
योहनप्रकाशितवाक्यम्
अनुभूमिका
चतुर्दशसमुल्लासः
यवनमतसमीक्षा
स्वमन्तव्यामन्तव्यविषयः इति ।
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ओ३म् सच्चिदानन्देश्वराय नमो नमः
भूमिका
जिस समय मैंने यह ग्रन्थ 'सत्यार्थप्रकाश' बनाया था, उस समय और उससे पूर्व संस्कृतभाषण करने, पठन-पाठन में संस्कृत ही बोलने और जन्मभूमि की भाषा गुजराती होने के कारण से मुझ को इस भाषा का विशेष परिज्ञान न था, इससे भाषा अशुद्ध बन गई थी। अब भाषा बोलने और लिखने का अभ्यास हो गया है। इसलिए इस ग्रन्थ को भाषा व्याकरणानुसार शुद्ध करके दूसरी वार छपवाया है। कहीं-कहीं शब्द, वाक्य रचना का भेद हुआ है सो करना उचित था, क्योंकि इसके भेद किए विना भाषा की परिपाटी सुधरनी कठिन थी, परन्तु अर्थ का भेद नहीं किया गया है, प्रत्युत विशेष तो लिखा गया है। हाँ, जो प्रथम छपने में कहीं-कहीं भूल रही थी, वह वह निकाल शोधकर ठीक-ठीक कर दी गई है।
यह ग्रन्थ १४ चौदह समुल्लास अर्थात् चौदह विभागों में रचा गया है। इसमें १० दश समुल्लास पूर्वार्द्ध और ४ चार उत्तरार्द्ध में बने हैं, परन्तु अन्त्य के दो समुल्लास और पश्चात् स्वसिद्धान्त किसी कारण से प्रथम नहीं छप सके थे, अब वे भी छपवा दिये हैं।
1- प्रथम समुल्लास में ईश्वर के ओङ्काराऽऽदि नामों की व्याख्या।
2- द्वितीय समुल्लास में सन्तानों की शिक्षा।
3- तृतीय समुल्लास में ब्रह्मचर्य, पठनपाठनव्यवस्था, सत्यासत्य ग्रन्थों के नाम और पढ़ने पढ़ाने की रीति।
4- चतुर्थ समुल्लास में विवाह और गृहाश्रम का व्यवहार।
5- पञ्चम समुल्लास में वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम का विधि।
6- छठे समुल्लास में राजधर्म।
7-सप्तम समुल्लास में वेदेश्वर-विषय।
8- अष्टम समुल्लास में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय।
9- नवम समुल्लास में विद्या, अविद्या, बन्ध और मोक्ष की व्याख्या।
10-. दशवें समुल्लास में आचार, अनाचार और भक्ष्याभक्ष्य विषय।
11- एकादश समुल्लास में आर्यावर्तीय मत मतान्तर का खण्डन मण्डन विषय।
12- द्वादश समुल्लास में चारवाक. बौद्ध और जैनमत का विषय।
13- त्रयोदश समुल्लास में ईसाई मत का विषय।
14- चौदहवें समुल्लास में मुसलमानों के मत का विषय।
और चौदह समुल्लासों के अन्त में आर्यों के सनातन वेदविहित मत की विशेषतः व्याख्या लिखी है, जिसको मैं भी यथावत् मानता हूँ।
मेरा इस ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्य-सत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान् आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्याऽसत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें।
मनुष्य का आत्मा सत्याऽसत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। परन्तु इस ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रक्खी है और न किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्याऽसत्य को मनुष्य लोग जान कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें, क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।
इस ग्रन्थ में जो कहीं-कहीं भूल-चूक से अथवा शोधने तथा छापने में भूल-चूक रह जाय, उसको जानने जनाने पर जैसा वह सत्य होगा वैसा ही कर दिया जायेगा। और जो कोई पक्षपात से अन्यथा शङ्का वा खण्डन मण्डन करेगा, उस पर ध्यान न दिया जायेगा। हाँ, जो वह मनुष्यमात्र का हितैषी होकर कुछ जनावेगा उस को सत्य-सत्य समझने पर उसका मत संगृहीत होगा।
यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान् प्रत्येक मतों में हैं, वे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् जो-जो बातें सब के अनुकूल सब में सत्य हैं, उनका ग्रहण और जो एक दूसरे से विरुद्ध बातें हैं, उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्ते वर्तावें तो जगत् का पूर्ण हित होवे। क्योंकि विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़ कर अनेकविध दु:ख की वृद्धि और सुख की हानि होती है। इस हानि ने, जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है, सब मनुष्यों को दु:खसागर में डुबा दिया है।
इनमें से जो कोई सार्वजनिक हित लक्ष्य में धर प्रवृत्त होता है, उससे स्वार्थी लोग विरोध करने में तत्पर होकर अनेक प्रकार विघ्न करते हैं। परन्तु 'सत्यमेव जयति नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।' अर्थात् सर्वदा सत्य का विजय और असत्य का पराजय और सत्य ही से विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है। इस दृढ निश्चय के आलम्बन से आप्त लोग परोपकार करने से उदासीन होकर कभी सत्यार्थप्रकाश करने से नहीं हटते।
यह बड़ा दृढ़ निश्चय है कि 'यत्तदने विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।' यह गीता का वचन है। इसका अभिप्राय यह है कि जो-जो विद्या और धर्मप्राप्ति के कर्म हैं, वे प्रथम करने में विष के तुल्य और पश्चात् अमृत के सदृश होते हैं। ऐसी बातों को चित्त में धरके मैंने इस ग्रन्थ को रचा है। श्रोता वा पाठकगण भी प्रथम प्रेम से देख के इस ग्रन्थ का सत्य-सत्य तात्पर्य जान कर यथेष्ट करें।
इसमें यह अभिप्राय रक्खा गया है कि जो-जो सब मतों में सत्य-सत्य बातें हैं. वे वे सब में अविरुद्ध होने से उनका स्वीकार करके जो-जो मतमतान्तरों में मिथ्या बातें हैं, उन-उन का खण्डन किया है। इसमें यह भी अभिप्राय रक्खा है कि सब मतमतान्तरों की गुप्त वा प्रकट बुरी बातों का प्रकाश कर विद्वान् अविद्वान् सब साधारण मनुष्यों के सामने रक्खा है, जिससे सब से सब का विचार होकर परस्पर प्रेमी हो के एक सत्य मतस्थ होवें।
यद्यपि मैं आर्यावर्त्त देश में उत्पन्न हुआ और वसता हूँ, तथापि जैसे इस देश के मतमतान्तरों की झूठी बातों का पक्षपात न कर याथातथ्य प्रकाश करता हूँ, वैसे ही दूसरे देशस्थ वा मत वालों के साथ भी वर्त्तता हूँ। जैसा स्वदेश वालों के साथ मनुष्योन्नति के विषय में वर्त्तता हूँ, वैसा विदेशियों के साथ भी तथा सब सज्जनों को भी वर्त्तना योग्य है। क्योंकि मैं भी जो किसी एक का पक्षपाती होता तो जैसे आजकल के स्वमत की स्तुति, मण्डन और प्रचार करते और दूसरे मत की निन्दा, हानि और बन्ध करने में तत्पर होते हैं, वैसे मैं भी होता, परन्तु ऐसी बातें मनुष्यपन से बाहर हैं। क्योंकि जैसे पशु बलवान् हो कर निर्बलों को दु:ख देते और मार भी डालते हैं, जब मनुष्य शरीर पाके वैसा ही कर्म करते हैं तो वे मनुष्य स्वभावयुक्त नहीं, किन्तु पशुवत् हैं। और जो बलवान् होकर निर्बलों की रक्षा करता है वही मनुष्य कहाता है और जो स्वार्थवश होकर परहानिमात्र करता रहता है, वह जानो पशुओं का भी बड़ा भाई है।
अब आर्यावर्तीयों के विषय में विशेष कर ११ ग्यारहवें समुल्लास तक लिखा है। इन समुल्लासों में जो कि सत्यमत प्रकाशित किया है, वह वेदोक्त होने से मुझ को सर्वथा मन्तव्य है और जो नवीन पुराण तन्त्रादि ग्रन्थोक्त बातों का खण्डन किया है, वे त्यक्तव्य हैं।
यद्यपि यद्यपि जो १२ बारहवें समुल्लास में चारवाक का मत, इस समय क्षीणाऽस्त सा है और यह चारवाक बौद्ध जैन से बहुत सम्बन्ध अनीश्वरवादादि में रखता है। यह चारवाक सब से बड़ा नास्तिक है। उसकी चेष्टा का रोकना अवश्य है, क्योंकि जो मिथ्या बात न रोकी जाय तो संसार में बहुत से अनर्थ प्रवृत्त हो जायें।
चारवाक का जो मत है वह, बौद्ध और जैन का मत है, वह भी १२ बारहवें समुल्लास में संक्षेप से लिखा गया है। और बौद्धों तथा जैनियों का भी चारवाक के मत के साथ मेल है और कुछ थोड़ा सा विरोध भी है। और जैन भी बहुत से अंशों में चारवाक और बौद्धों के साथ मेल रखता है और थोडी सी बातों में भेद है, इसलिये जैनों की भिन्न शाखा गिनी जाती है। वह भेद १२ बारहवें समुल्लास में लिख दिया है यथायोग्य वहीं समझ लेना। जो इसका भिन्न है, सो-सो बारहवें समुल्लास में दिखलाया है। बौद्ध और जैन मत का विषय भी लिखा है।
इनमें से बौद्धों के दीपवंशादि प्राचीन ग्रन्थों में बौद्धमत संग्रह 'सर्वदर्शनसंग्रह' में दिखलाया है. उस में से यहां लिखा है और जैनियों के निम्नलिखित सिद्धान्तों के पुस्तक हैं। उन में से-
४ चार मूलसूत्र, जैसे-१ आवश्यकसूत्र, २ विशेष आवश्यकसूत्र, ३ दशवैकालिकसूत्र, और ४ पाक्षिकसूत्र।
११ ग्यारह अंग, जैसे-१ आचारांगसूत्र, २ सुगडांगसूत्र, ३ थाणांगसूत्र, ४ समवायांगसूत्र, ५ भगवतीसूत्र, ६ ज्ञाताधर्मकथासूत्र, ७ उपासकदशासूत्र, ८ अन्तगड़दशासूत्र, ९ अनुत्तरोववाईसूत्र, १० विपाकसूत्र और ११ प्रश्नव्याकरणसूत्र ।
१२ बारह उपांग, जैसे-१ उपवाईसूत्र, २ रावप्सेनीसूत्र, ३ जीवाभिगमसूत्र, ४ पन्नगणासूत्र,५ जम्बुद्वीपपन्नतीसूत्र,६ चन्दपन्नतीसूत्र,७ सूरपन्नतीसूत्र,८ निरियावलीसूत्र, ९ कप्पियासूत्र, १० कपवड़ीसयासूत्र, ११ पूप्पियासूत्र, १२ पुप्यचूलियासूत्र।
५ पाँच कल्पसूत्र, जैसे–१ उत्तराध्ययनसूत्र, २ निशीथसूत्र, ३ कल्पसूत्र, ४ व्यवहारसूत्र, और ५ जीतकल्पसूत्र।
६ छह छेद, जैसे-१ महानिशीथबृहद्वाचनासूत्र, २ महानिशीथलघुवाचनासूत्र, ३ मध्यमवाचनासूत्र, ४ पिण्डनिरुक्तिसूत्र, ५ औघनिरुक्तिसूत्र, ६ पर्य्यषणासूत्र।
१० दश पयन्नासूत्र, जैसे-१ चतुस्सरणसूत्र, २ पञ्चखाणसूत्र३ तदुलवैयालिकसूत्र, ४ भक्तिपरिज्ञानसूत्र, ५ महाप्रत्याख्यानसूत्र, ६ चन्दाविजयसूत्र७ गणीविजयसूत्र, ८ मरणसमाधिसूत्र, ९ देवेन्द्रस्तवनसूत्र, और १०. संसारसूत्र तथा नन्दीसूत्र, योगोद्धारसूत्र भी प्रामाणिक मानते हैं।
५ पञ्चाङ्ग, जैसे-१ पूर्व सब ग्रन्थों की टीका, २ निरुक्ति. ३ चरणी. ४ भाष्य। ये चार अवयव और सब मिलके पञ्चाङ्ग कहाते हैं।
इनमें ढूंढिया अवयवों को नहीं मानते और इन से भिन्न भी अनेक ग्रन्थ हैं कि जिन को जैनी लोग मानते हैं। इन का विशेष मत पर विचार १२ बारहवें समुल्लास में देख लीजिए।
जैनियों के ग्रन्थों में लाखों पुनरुक्त दोष हैं और इनका यह भी स्वभाव है कि जो अपना ग्रन्थ दूसरे मतवाले के हाथ में हो वा छपा हो तो कोई-कोई उस ग्रन्थ को अप्रमाण कहते हैं, यह बात उन की मिथ्या है। क्योंकि जिस को कोई माने, कोई नहीं, इससे वह ग्रन्थ जैन मत से बाहर नहीं हो सकता। हाँ, जिस को कोई न माने और न कभी किसी जैनी ने माना हो, तब तो अग्राह्य हो सकता है। परन्तु ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं है कि जिसको कोई भी जैनी न मानता हो। इसलिए जो जिस ग्रन्थ को मानता होगा उस ग्रन्थस्थ विषयक खण्डन मण्डन भी उसी के लिए समझा जाता है। परन्तु कितने ही ऐसे भी हैं कि उस ग्रन्थ को मानते जानते हों तो भी सभा वा संवाद में बदल जाते हैं। इसी हेतु से जैन लोग अपने ग्रन्थों को छिपा रखते हैं। दूसरे मतस्थ को न देते, न सुनाते और न पढ़ाते, इसलिए कि उन में ऐसी-ऐसी असम्भव बातें भरी हैं जिन का कोई भी उत्तर जैनियों में से नहीं दे सकता। झूठ बात का छोड़ देना ही उत्तर है।
१३वें समुल्लास में ईसाइयों का मत लिखा है। ये लोग बायबिल को अपना धर्म-पुस्तक मानते हैं। इन का विशेष समाचार उसी १३ तेरहवें समुल्लास में देखिए और १४ चौदहवें समुल्लास में मुसलमानों के मत-विषय में लिखा है। ये लोग कुरान को अपने मत का मूल पुस्तक मानते हैं। इनका भी विशेष व्यवहार १४वें समुल्लास में देखिए और इस के आगे वैदिकमत के विषय में लिखा है।
जो कोई इस ग्रन्थकर्ता के तात्पर्य से विरुद्ध मनसा से देखेगा उसको कुछ भी अभिप्राय विदित न होगा, क्योंकि वाक्यार्थबोध में चार कारण होते हैं-आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति और तात्पर्य। जब इन चारों बातों पर ध्यान देकर, जो पुरुष ग्रन्थ को देखता है, तब उस को ग्रन्थ का अभिप्राय यथायोग्य विदित होता है-
'आकाक्षा' किसी विषय पर वक्ता की और वाक्यस्थ पदों की आकांक्षा परस्पर होती है।
'योग्यता' वह कहाती है कि जिस से जो हो सके, जैसे जल से सींचना।
'आसत्ति' जिस पद के साथ जिसका सम्बन्ध हो, उसी के समीप उस पद को बोलना वा लिखना।
'तात्पर्य' जिस के लिए वक्ता ने शब्दोच्चारण वा लेख किया हो, उसी के साथ उस वचन वा लेख को युक्त करना।
बहुत से हठी, दुराग्रही मनुष्य होते हैं कि जो वक्ता के अभिप्राय से विरुद्ध कल्पना किया करते हैं, विशेष कर मत वाले लोग। क्योंकि मत के आग्रह से उनकी बुद्धि अन्धकार में फँस के नष्ट हो जाती है। इसलिए जैसा मैं पुराण, जैनियों के ग्रन्थ, बायबिल और कुरान को प्रथम ही बुरी दृष्टि से न देखकर उन में से गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग तथा अन्य मनुष्य जाति की उन्नति के लिए प्रयत्न करता हूं, वैसा सबको करना योग्य है।
इन मतों के थोड़े-थोड़े ही दोष प्रकाशित किए हैं, जिनको देखकर मनुष्य लोग सत्याऽसत्य मत का निर्णय कर सकें और सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करने कराने में समर्थ होवें, क्योंकि एक मनुष्य जाति में बहका कर, विरुद्ध बुद्धि कराके, एक दूसरे को शत्रु बना, लड़ा मारना विद्वानों के स्वभाव से बहिः है।
यद्यपि इस ग्रन्थ को देखकर अविद्वान् लोग अन्यथा ही विचारेंगे, तथापि बुद्धिमान लोग यथायोग्य इस का अभिप्राय समझेंगे, इसलिये मैं अपने परिश्रम को सफल समझता और अपना अभिप्राय सब सज्जनों के सामने धरता हूँ।
इस को देख-दिखला के मेरे श्रम को सफल करें। और इसी प्रकार पक्षपात न करके सत्यार्थ का प्रकाश करके मुझ वा सब महाशयों का मुख्य कर्त्तव्य काम है।
सर्वात्मा सर्वान्तर्यामी सच्चिदानन्द परमात्मा अपनी कृपा से इस आशय को विस्तृत और चिरस्थायी करे।
॥ अलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्वरशिरोमणिषु ॥
॥ इति भूमिका ॥
स्थान महाराणा जी का उदयपुर
भाद्रपद, शुक्लपक्ष संवत् १९३९
(स्वामी) दयानन्द सरस्वती
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॥ ओ३म्॥
अथ सत्यार्थप्रकाशः
ओ३म् शन्नो मित्रः शं वरुणः शन्नो भवत्वर्युमा ।
शन्नऽइन्द्रो बृहस्पतिः शन्नो विष्णुरुरुक्रमः ॥
नमो ब्रह्मणे नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ।
त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि ऋतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु।
अवतु माम् अव॑तु वक्तारम् ।
ओ३म् शान्तिश्शान्तिश्शान्तिः ॥१॥
अर्थ-(ओ३म्) यह ओंकार शब्द परमेश्वर का सर्वोत्तम नाम है, क्योंकि इसमें जो अ, उ और म् तीन अक्षर मिलकर एक (ओ३म्) समुदाय हुआ है, इस एक नाम से परमेश्वर के बहुत नाम आते हैं जैसे-अकार से विराट, अग्नि और विश्वादि । उकार से हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि । मकार से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञादि नामों का वाचक और ग्राहक है। उसका ऐसा ही वेदादि सत्यशास्त्रों में स्पष्ट व्याख्यान किया है कि प्रकरणानुकूल ये सब नाम परमेश्वर ही के हैं।
(प्रश्न) परमेश्वर से भिन्न अर्थों के वाचक विराट आदि नाम क्यों नहीं? ब्रह्माण्ड, पृथिवी आदि भूत, इन्द्रादि देवता और वैद्यकशास्त्र में शुण्ठ्यादि ओषधियों के भी ये नाम हैं, या नहीं ?
(उत्तर) हैं, परन्तु परमात्मा के भी हैं।
(प्रश्न) केवल देवों का ग्रहण इन नामों से करते हो वा नहीं?
(उत्तर) आपके ग्रहण करने में क्या प्रमाण है?
(प्रश्न) देव सब प्रसिद्ध और वे उत्तम भी हैं, इससे मैं उनका ग्रहण करता हूँ।
(उत्तर) क्या परमेश्वर अप्रसिद्ध और उससे कोई उत्तम भी है? पुनः ये नाम परमेश्वर के भी क्यों नहीं मानते? जब परमेश्वर अप्रसिद्ध और उसके तुल्य भी कोई नहीं तो उससे उत्तम कोई क्योंकर हो सकेगा। इससे आपका यह कहना सत्य नहीं। क्योंकि आपके इस कहने में बहुत से दोष भी आते हैं, जैसे–'उपस्थितं परित्यज्याऽनुपस्थितं याचत इति बाधितन्यायः' किसी ने किसी के लिए भोजन का पदार्थ रख के कहा कि आप भोजन कीजिए और वह जो उसको छोड़ के अप्राप्त भोजन के लिए जहाँ-तहाँ भ्रमण करे उसको बुद्धिमान् न जानना चाहिए, क्योंकि वह उपस्थित नाम समीप प्राप्त हुए पदार्थ को छोड़ के अनुपस्थित अर्थात् अप्राप्त पदार्थ की प्राप्ति के लिए श्रम करता है। इसलिए जैसा वह पुरुष बुद्धिमान् नहीं वैसा ही आपका कथन हुआ। क्योंकि आप उन विराट आदि नामों के जो प्रसिद्ध प्रमाणसिद्ध परमेश्वर और ब्रह्माण्डादि उपस्थित अर्थों का परित्याग करके असम्भव और अनुपस्थित देवादि के ग्रहण में श्रम करते हैं, इसमें कोई भी प्रमाण वा युक्ति नहीं। जो आप ऐसा कहें कि जहाँ जिस का प्रकरण है वहाँ उसी का ग्रहण करना योग्य है जैसे किसी ने किसी से कहा कि 'हे भृत्य ! त्वं सैन्धवमानय' अर्थात् तू सैन्धव को ले आ। तब उस को समय अर्थात् प्रकरण का विचार करना अवश्य है, क्योंकि सैन्धव नाम दो पदार्थों का है; एक घोड़े और दूसरा लवण का। जो स्वस्वामी का गमन समय हो तो घोड़े और भोजन का काल हो तो लवण को ले आना उचित है और जो गमन समय में लवण और भोजन-समय में घोड़े को ले आवे तो उसका स्वामी उस पर क्रुद्ध होकर कहेगा कि तू निर्बुद्धि पुरुष है। गमनसमय में लवण और भोजनकाल में घोड़े के लाने का क्या प्रयोजन था? तू प्रकरणवित् नहीं है, नहीं तो जिस समय में जिसको लाना चाहिए था उसी को लाता। जो तुझ को प्रकरण का विचार करना आवश्यक था वह तूने नहीं किया, इस से तू मूर्ख है, मेरे पास से चला जा। इससे क्या सिद्ध हुआ कि जहाँ जिसका ग्रहण करना उचित हो वहाँ उसी अर्थ का ग्रहण करना चाहिए तो ऐसा ही हम और आप सब लोगों को मानना और करना भी चाहिए।
अथ मन्त्रार्थः
ओं खम्ब्रह्म ॥१॥ यजुः अ० ४० मं० १७
देखिए वेदों में ऐसे-ऐसे प्रकरणों में 'ओम्' आदि परमेश्वर के नाम हैं।
ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत ॥ २॥ -छान्दोग्य उपनिषत् ।
ओमित्येतदक्षरमिदः सर्वं तस्योपव्याख्यानम्॥ ३॥-माण्डूक्य।
सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्॥४॥ -कठोपनिषत्, वल्ली २। मं० १५ ॥
प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि ।
रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुष परम्॥५॥
एतमग्नि वदन्त्येके मनुमन्ये प्रजापतिम् ।
इन्द्रमेके परे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम्॥६॥ -मनुस्मृति अध्याय १२। श्लोक १२२, १२३।
स ब्रह्मा स विष्णुः स रुद्रस्स शिवस्सोऽक्षरस्स परमः स्वराट्।
स इन्द्रस्स कालाग्निस्स चन्द्रमाः॥ ७॥ -कैवल्य उपनिषत् ।
इन्द्र मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यस्स सुपर्णो गरुत्मान् ।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्य॒ग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः ॥८॥ -ऋग्वेद मं० १। सूक्त १६४। मन्त्र ४६॥
भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वाधाया विश्वस्य॒ भुवनस्य धी।
पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृह पृथिवीं मा हिंसीः ॥९॥ - यजुर्वेद अध्याय १३। मन्त्र १८॥
इन्द्रो मह्ना रोदसी पप्रथच्छव इन्द्रः सूर्य्यमरोचयत् ।
इन्द्रे ह विश्वा भुवनानि येमिर इन्द्रे स्वानास इन्दवः ॥१०॥ -सामवेद प्रपाठक ७। त्रिक ८। मन्त्र २॥
प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे ।
यो भूतः सर्वंस्येश्वरो यस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥११॥ -अथर्ववेद काण्ड ११। प्रपाठक २४। अ० २। मन्त्र ८॥