आगे बढ़ती हुई औरत (गद्य काव्य)

आगे बढ़ती हुई औरत



उमा कान्त, कासगंज (उ0प्र0) भारत 


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आगे बढ़ती हुई औरत वह है 


जो बड़ों को खिलाती है।


पति को बढ़ाती है,


और बच्चों को पढ़ाती है।


चूँकि वह पढ़ी है, तभी तो आगे बढ़ी है।


वह बड़ी न सही


पर वह बढ़ी है।


जो करते थे 


उसे पालने और खिलाने के दावे। 


दो रोटियाँ मुहैया कराने के बदले में


खुद को समझते थे उसका भगवान। 


आज वे खुद खा रहे हैं


खाते तो पहले भी थे, पर धमक के साथ


पर अब खा रहे हैं, फीकी चमक के साथ। 


सच तो यह है वे अब खा रहे हैं और गा रहे हैं।


खुद को भगवान समझ कर नहीं


उसे देवी समझ कर।


पहले पल-पल जलती थी 


पल-पल सलती थी। 


पर अब न जलती है न सलती है,


सिर्फ संभलती है।


अब पुरुष का पुरुष नहीं जागता


वह डराना, घसीटना और पीटना।


पर अब औरत की औरत जागती है, 


लेकिन औरत होने के बावजूद नहीं बनती है औरत।


देवी होने के बावजूद, नहीं बनती है देवी।


तभी तो बिना किसी एहसान के


पूरी जिम्मेदारी के साथ


जारी है- खिलाना, बढ़ाना और पढ़ाना।


 


आगे बढ़ती हुई औरत वह है


जो पढ़ी है।


पढ़ी है इसीलिए पढ़ाती है


उस आधी आबादी को भी,


जो सदियों से खुद को पूरा करने में लगी थी।


जिसके लिए उसने इस बची हुई आधी आबादी को


ताकत के बल पर, 


अनेकों बार मारा-पीटा, डराया, धमकाया और रुलाया है।


आँसू की बूँँद को न जाने कितनी बार


अश्रुधाराओं में बदला है।


उसने बिलखती हुई औरत के अश्रु को कभी न पौंछा


सिर्फ उसे खरौंचा और नौंचा।


पर कभी न सोचा,


कि ये आधी आबादी सिर्फ आधी ही नहीं है।


पूर्णता भी है और आदि भी है,


उस आधी आबादी की,


जो खुद पूरी होने की गलतफहमी में जीती रही है।


और इसके कितने अधिकारों और उपकारों को


खुद का अधिकार समझ कुचलती और मसलती रही है।


परंतु अब ये आधी आबादी


पढ़ी ही नहीं


बढ़ी भी है।


इसीलिए आज अपने पैरों पर खड़ी भी है।


अपने अधिकारों के लिए न जाने कितनी बार


बिना बोले खरी-खरी, लड़ी भी है।


क्योंकि ये जानती है।


आदि कभी आधी के बिना


पूरी नहीं हो सकती।


इसीलिए यह आदि (शक्ति),


उस आधी को भी पढ़ाती है।


और आगे बढ़ती हुई औरत कहलाती है।                                                                                        


 


कवि परिचय-


उमा कान्त 
●शिक्षा- परास्नातक, नेट एवं एम0फिल0


●व्यवसाय- सहायक आचार्य, स्वामी केशवानन्द महाविद्यालय, लक्ष्मणगढ़, अलवर (राजस्थान) भारत 


●संपादक व प्रकाशक- 'प्राज्ञ साहित्य' (अंतरराष्ट्रीय संदर्भित त्रैमासिक हिंदी शोध एवं प्रचार पत्र)


●प्रकाशक- 'प्राज्ञ साहित्य' (प्रकाशन)


ग्यारह अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों/संगोष्ठियों व आठ राष्ट्रीय सम्मेलनों/संगोष्ठियों में पत्रवाचन। 


●अनुसंधान प्रयोगशाला, तेजपुर, असम (रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन, रक्षा मंत्रालय, भारत सरकार) द्वारा आयोजित एक दिवसीय हिंदी कार्यशाला के मुख्य वक्ता एवं एकल संचालक के रूप में वैज्ञानिकों, अधिकारियों, सीनियर रिसर्च फैलोशिप एवं जूनियर रिसर्च फैलोशिप के समक्ष एकल संचालन।


विभिन्न सामाजिक कार्यों में सराहनीय योगदान हेतु  डब्ल्यूएचओ-यूनिसेफ, विश्व बैंक, डीआरडीओ, गूगल सहित अनेकों संस्थाओं द्वारा सम्मान व प्रमाण पत्र।


●रुचि- गद्य व पद्य की समस्त प्रचलित विधाओं में सृजन। 


उद्देश्य- हिंदी को लोकप्रिय राष्ट्रभाषा बनाना। 


 


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