अधिगमकर्त्ता की विद्यालय तंत्र से अपेक्षा
सारांशिका :
प्रबंधन विद्यालय रूपी संस्था के सुचारु संचालन हेतु परम आवश्यक है । बिना बेहतर प्रबंधन के विद्यालयी क्रिया-कलापों का सफल क्रियान्वयन संभव नहीं हो पाता है । विद्यालयी प्रबंध-तंत्र यह सुनिश्चित करता है कि विद्यार्थियों की मूलभूत जरूरतों-आवश्यकताओं की पूर्ति में कोई समस्या न हो । अधिगमकर्त्ताओं की मूलभूत जरूरतों के अतिरिक्त विद्यालय तंत्र से उनकी कुछ विशिष्ट अपेक्षाएँ भी होती हैं । चूंकि विद्यालय समाज का लघुरूप है। इसलिये जैसे-जैसे समाज का विकास (वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिक) होता जाता है, वैसे-वैसे विद्यालय का स्वरूप साथ ही अधिगमकर्त्ताओं की विद्यालय से अपेक्षाएँ भी बदल जाती हैं। यदि बात 21वीं सदी में विद्यार्थियों की आवश्यकताओं-अपेक्षाओं की किया जाय तो हमें यह समझना पड़ेगा कि विद्यार्थी स्वयं के लिए किन-किन चीजों की मांग करते हैं । उनकी विद्यालय तंत्र से क्या उम्मीदें हैं । यही इस शोध-कार्य का मुख्य सरोकार है । वास्तव में शोधार्थी यह मालूम करना चाहता है कि 21वीं सदी, जिसे विज्ञान और प्रौद्योगिकी का युग कहा जाता है, में विद्यार्थीगण क्या-क्या और किस तरह की प्रक्रिया की अपेक्षा विद्यालय तंत्र से रखते हैं तथा विद्यार्थियों की प्राथमिकता सूची में किन-किन जरूरतों का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है । प्रयोज्य के रूम में सोद्देश्य विधि से उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले के तीन उच्च माध्यमिक विद्यालयों का चयन किया । चयनित विद्यालयों के 9वीं से 12वीं कक्षा तक के कुल 215 विद्यार्थियों का चयन स्तरीकृत प्रसंभाव्य प्रतिदर्शन तकनीकि द्वारा किया । विद्यार्थियों से वर्तमान समय में उनकी ‘विद्यालय से अपेक्षा’ विषय पर लिखित विचार ले करके विषय वस्तु विश्लेषण विधि द्वारा विश्लेषण किया । शोधार्थी ने आंकड़ों के विश्लेषणोंपरांत गुणात्मक शोध उपागम के अंतर्गत आगमनात्मक तर्क का प्रयोग करते हुये अपना निर्वचन प्रस्तुत किया ।
मुख्य शब्द : विद्यालयी प्रणाली, शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया एवं विद्यार्थियों की अपेक्षाएँ ।
विनोद कुमार
शोधार्थी, शिक्षा विभाग, शिक्षा विद्यापीठ
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र
ई-मेल : vinodpal334@gmail.com
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प्रस्तावना :
विद्यालय समाज का एक लघु रूप है । विद्यालय समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु श्रेष्ठतम नागरिकों का निर्माण करता है। ताकि वे समाज की बेहतरी के लिए अपनी भूमिका का समुचित निर्वहन कर सकें। नागरिक-निर्माण की इस प्रक्रिया में विद्यालय, समाज के बदलते स्वरूप के साथ-साथ अपने स्वरूप में भी सकारात्मक परिवर्तन करता है। बदलते परिवेश में भी विद्यालय को अधिगमकर्त्ताओं की समय सापेक्ष आवश्यकताओं-जरूरतों पर खरा उतरने का सार्थक प्रयास करना चाहिए । विद्यालयी प्रबंध-तंत्र अधिगमकर्त्ताओं की जरूरतों को किस सीमा तक पूरा करता है अर्थात विद्यार्थियों की अपेक्षाओं पर कहाँ तक खरा उतरता है, इसका अध्ययन आवश्यक जान पड़ता है। वास्तव में समय-समय पर विद्यालयी कार्य-संस्कृति में सामाजिक परिवर्तनों और आवश्यकताओं के साथ ही अधिगमकर्त्ताओं की अपेक्षानुरूप परिमार्जन होना चाहिये । विद्यालय में प्रचलित परंपरागत शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया, पाठ्यक्रम, शिक्षण-विधि इत्यादि में लगातार परिमार्जन होते रहना चाहिये । विद्यालयी उत्पाद के रूप में विद्यार्थी समाज एवं राष्ट्र के लिए सुयोग्य नागरिक के रूप में निर्मित हो सकें, इसका आंकलन भी विद्यालय-तंत्र को करते रहना चाहिये। अधिगमकर्त्ताओं की आवश्यकताओं-अपेक्षाओं के मुताबिक विद्यालय को अपनी व्यवस्था में परिवर्तन करना चाहिए, जरूरत पड़ने पर पुराने पाठ्यक्रम को बदलना चाहिये और कुछ नये विषयों, नये सिद्धांतों, नये पाठों को पाठ्यक्रम में जोड़ना भी चाहिये। विद्यालयी व्यवस्था में परिवर्तन का उद्देश्य सदैव अधिगमकर्त्ता के लिए अधिगम को सरल-सुगम बनाना होना चाहिए । साथ ही इसका उद्देश्य समाज को बेहतर नागरिक प्रदान करना भी होना चाहिए। इसलिए हमें यह भी देखने की आवश्यकता है कि विद्यालय तंत्र अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए विद्यार्थियों की आवश्यकताओं-जरूरतों-अपेक्षाओं को किस सीमा तक पूरा करता है? क्या परंपरागत विद्यालयी शिक्षण-अधिगम व्यवस्था 21वीं सदी के अधिगमकर्त्ताओं की आवश्यकताओं-अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त है? क्या वर्तमान समय के विद्यार्थियों की अपेक्षाओं पर विद्यालय खरा उतर पा रहा है? क्या विद्यालय तंत्र विद्यार्थियों की जरूरतों को उस सीमा तक पूरा कर पा रहा है जिस सीमा तक विद्यार्थियों की जरूरतों का उनके शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया हेतु आवश्यकता है । साथ ही यह भी देखना होगा कि क्या परंपरागत शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया 21वीं सदी के अधिगमकर्ताओं की आवश्यकताओं के अनुरूप अपनी व्यवस्था कर पा रहा है? वास्तव में समय के सापेक्ष बदलती सभी आवश्यकताएं पूरी कर पाना किसी भी तंत्र के लिए संभव नहीं है लेकिन जरूरत इस बात की है कि हम आवश्यकता और ख्वाहिशों में फर्क करना सीख लें । अधिगमकर्त्ताओं की उम्मीदों-आवश्यकतों का सही ढंग से आंकलन किये बिना यह फ़र्क कर पाना संभव नहीं लगता है। इसलिए यह सबसे बेहतर है कि हम अधिगमकर्त्ताओं से ही यह जानने की कोशिश करें कि वे विद्यालय से क्या अपेक्षा रखते हैं? यह शोध-पत्र ऐसी ही एक कोशिश का उदाहरण है । वास्तव में अधिगमकर्त्ता विद्यालयी व्यवस्था से क्या अपेक्षा रखता है, इसी की पड़ताल के रूप में यह शोध पत्र लिखा गया है ।
शोध-उद्देश्य :
प्रस्तुत शोध अध्ययन का उद्देश्य ‘अधिगमकर्त्ताओं की विद्यालयी तंत्र से अपेक्षाओं का अध्ययन करना’ है। अर्थात इस शोध अध्ययन का मुख्य सरोकार इस बात की पड़ताल करना है कि माध्यमिक स्तर के अधिगमकर्त्ता विद्यालय तंत्र से क्या-क्या उम्मीद करते हैं। वे कैसी शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया तथा कैसा विद्यालयी वातावरण चाहते हैं।
शोध प्रारूप एवं प्रतिदर्श :
इस शोध अध्ययन में गुणात्मक उपागम का प्रयोग किया गया। शोधार्थी ने उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले के तीन इंटर कॉलेजों का चयन सोद्देश्य विधि से किया। फिर प्रत्येक चयनित कॉलेज से स्तरीकृत प्रसंभाव्य प्रतिदर्शन तकनीकि द्वारा कुल 215 विद्यार्थियों का प्रतिदर्श के रूप में चयन किया । चयनित प्रतिदर्शों का विवरण सारिणी-प्रथम में दिया गया है।
सारिणी-प्रथम : प्रतिदर्श का विवरण
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क्र. सं.-विद्यालय/कॉलेज- कक्षा- छात्र-छात्रा-कुल
1.श्रीमती रा.दे.इंटर कॉलेज-11वीं(वि.वर्ग) 20 10 30
11वीं(कला वर्ग)15 10 25
12वीं(वि.वर्ग) 30 32 62
12वीं(कला वर्ग)22 26 48
2.सी.या.उ.मा.विद्यालय- 9वीं(वि.वर्ग)15 08 23
10वीं(वि.वर्ग)14 13 27
कुल 116 99 215
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प्रदत्त संकलन :
आंकड़ा संग्रहण हेतु शोधार्थी ने प्रयोज्यों को वास्तविक विद्यालयी परिस्थिति में ‘विद्यालय से अपेक्षाएँ’ विषय पर अपने विचार बिन्दुवार लिखने को कहा गया। शोधार्थी द्वारा यह सुनिश्चित करने पर कि उनके द्वारा दी गयी जानकारी का प्रयोग केवल इस शोध अध्ययन हेतु किया जायेगा और उनकी वैयक्तिक सूचनाएँ पूर्णतः गोपनीय रखी जाएगी या कम से कम उनके कॉलेज से संबंधित किसी भी व्यक्ति को नहीं बताया जायेगा; अधिगमकर्त्ताओं ने अपने-अपने विद्यालय की कार्य-संस्कृति के आधार पर अपनी समझ के आधार पर विद्यालय से उनकी क्या-क्या अपेक्षाएँ हैं, को अपने रफ कॉपी पर रुचिपूर्वक लिखा। शोधार्थी ने प्रयोज्यों के विचारों को जानने-समझने हेतु विद्यार्थियों द्वारा लिखे गए विचार वाले पन्ने को इकट्ठा किया ।
प्रदत्त विश्लेषण एवं व्याख्या :
विद्यार्थियों के लिखित विचारों की विषय वस्तु विश्लेषण एवं आगमनात्मक तर्क का प्रयोग करके प्रदत्तों का विश्लेषण किया। विश्लेषण करते समय पाया कि अधिगमकर्त्ताओं के विचार तार्किक क्रम में नहीं हैं। किसी ने स्वच्छता की बात पहले लिखा तो किसी ने खेलने की व्यवस्था के संबंध में सबसे पहले लिखा। इसलिये पहले दो तीन बार विद्यार्थियों के लिखित विचारों को पढ़ा फिर समानता ढूँढने का प्रयास करते हुये कोडिंग किया । कोडिंग करते समय पहले एक समान कथनों को एक विशेष प्रतीक दिया फिर एक विशेष क्षेत्र से संबंधित कथनों को लेकर अलग-अलग समूह बनाया तथा अंत में विभिन्न समूहों को समानता के आधार पर ‘विशिष्ट विषय’ (थीम) का विकास किया। इस तरह कुल तीन स्तरों पर कोडिंग करके आंकड़ों का विश्लेषण किया गया। जिसका विवरण अग्रलिखित है।
भौतिक संसाधन की उपलब्धता एवं रख-रखाव संबंधी अपेक्षा :
विद्यालय वह संस्था है जहाँ अध्यापक और विद्यार्थी आपस में अंतः क्रिया द्वारा एक दूसरे से सीखते हैं। सीखने की प्रक्रिया विद्यालय रूपी संस्थान के जिस प्रांगण में सकुशल संपन्न होती है, उसमें पर्याप्त शिक्षण कक्ष, प्रयोगशाला, कार्यालय एवं खेल का मैदान अवश्य होना चाहिये। शिक्षण कक्ष में बैठने हेतु पर्याप्त डेक्स-बेंच, मेज-कुर्सी भी होने चाहिये। विद्यालय भवन में पर्याप्त रूप से प्राकृतिक रौशनी एवं हवा आनी चाहिये। सभी विद्यार्थियों ने विद्यालय प्रबंध-तंत्र से यह अपेक्षा व्यक्त किया है कि बैठने के लिए पर्याप्त फर्नीचर, व्यवस्थित ब्लैक बोर्ड की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। सवाल यह उठता है कि क्या समस्त विद्यालयों में इन भौतिक संसाधनों की उपलब्धता पर्याप्त रूप से सुनिश्चित है या नहीं । विद्यार्थियों ने विद्यालय से अपनी अपेक्षा पर विचार रखते हुए भौतिक संसाधनों की उपलब्धता एवं रख-रखाव संबंधी अपेक्षाएं प्रकट किया है । उनका मानना है कि विद्यालय में पर्याप्त फर्नीचर, कुर्सी-मेज उपलब्ध हों और उनके रख-रखाव पर विशेष ध्यान दिया जाए । विद्यार्थी यह भी चाहते हैं कि विद्यालय प्रबंध समिति नियमित रूप से भौतिक संसाधनों की जांच करें और टूटी हुई कुर्सियों, डेक्स-बेंच इत्यादि को बदलने का प्रयास करें। एक छात्रा ने यह लिखा कि विद्यालय में शौचालय की साफ-सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाय। इस विचार से यह पता चलता है कि विद्यालय प्रबंध-तंत्र द्वारा साफ-सफाई पर ध्यान नहीं दिया जाता है या यह कहें कि कम से कम उतनी अच्छे से सफाई नहीं कराया जाता है, जितना कि विद्यार्थी अपेक्षा रखते हैं। वास्तव में विद्यालय प्रबंध-तंत्र को समझना चाहिये कि बिना पर्याप्त साफ-सफाई के विद्यालय प्रांगण को स्वच्छ एवं ऊर्जावान नहीं बना सकते हैं। अतः विद्यालय प्रबंध-तंत्र को समय-समय पर विद्यार्थियों के विचारों को जानने की कोशिश करनी चाहिये। विद्यालय प्रांगण का स्वच्छ, प्रकाशयुक्त एवं सकारात्मक ऊर्जायुक्त होना विद्यार्थियों के शारीरिक विकास के साथ ही साथ संज्ञानात्मक विकास का महत्त्वपूर्ण आधार होता है।
शुद्ध जल, खेल एवं स्वास्थ्य संबंधी अपेक्षा :
सभी विद्यार्थियों ने यह विचार लिखा कि विद्यालय प्रांगण में शुद्ध जल एवं खेल की व्यवस्था होनी चाहिये। पीने के पानी की नियमित जांच होनी चाहिये। अधिकांश विद्यार्थियों ने स्वास्थ्य-जांच संबंधी अपेक्षा की भी बात किया । विद्यार्थियों का कहना है कि नियमित रूप से उनके स्वास्थ्य की जांच विद्यालय द्वारा करायी जानी चाहिये। द्वितीय थीम से संबंधित विचारों का विश्लेषण करने पर शोधार्थी ने पाया कि अधिकांश विद्यार्थी यह चाहते हैं कि विद्यालय प्रबंधन समिति द्वारा विद्यालय प्रांगण में पीने की शुद्ध पानी की व्यवस्था की जाय साथ ही पीने के पानी की नियमित जांच करायी जाय । खेल के लिए पर्याप्त मैदान हों। मैदान के चारों ओर बाउंड्री कराई जाय। खेल के लिए पर्याप्त सामग्री जैसे क्रिकेट के लिए बैट-गेंद, हॉकी, वॉलीबॉल इत्यादि की व्यवस्था करायी जाय । सभी पुरुष विद्यार्थियों ने एक मत से क्रिकेट संबंधी सामग्री की उपलब्धता संबंधी अपेक्षा विद्यालय से किया है। विद्यार्थी चाहते हैं कि उनके स्वास्थ्य की पर्याप्त रूप से जांच विद्यालय प्रबंधन कराए। हो सके तो एक डॉक्टर की नियुक्ति विद्यालय में किया जाय। अधिकांश विद्यार्थियों ने अपने लिए खेलकूद को बढ़ावा चाहते हैं। वे चाहते हैं कि खेलने के लिए विद्यालयी समय-सारिणी में पर्याप्त समय निर्धारित किया जाय। विचारणीय है कि विद्यार्थियों के विचारों को अमल में लाकर विद्यालय अपने विद्यार्थियों के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लक्ष्यों को पूरा करते हुये अधिगम लक्ष्यों को सर्वोत्तम ढंग से प्राप्त किया जा सकता है।
शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया एवं नैतिक बोध संबंधी अपेक्षा :
अधिकांश विद्यार्थियों ने कक्षा संचालन, समय-सारणी, शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया तथा अध्यापकों के नैतिक बोध संबंधी अपेक्षा में अपने विचार व्यक्त किए । विद्यार्थियों ने बताया कि कक्षा संचालन के लिए नियमित रूप से समय-सारिणी का पालन किया जाना चाहिये। वे चाहते हैं कि विद्यालय में नियमित कक्षा संचालन हो, निश्चित समय पर निश्चित विषय संबंधित अध्यापक द्वारा ही पढ़ाया जाय। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि अध्यापकों की अनुपस्थिति के कारण समय सारणी प्रभावित होती है । कभी-कभी अध्यापक उपस्थित होने पर भी कक्षा में पढ़ाने हेतु नहीं जाते हैं। ऐसी स्थिति से निपटने हेतु विद्यार्थियों ने यह अपेक्षा व्यक्त किया है कि विषय-अध्यापक द्वारा नियमित कक्षा लिया जाय तथा एक विषय की कक्षा दूसरे विषय के अध्यापक न लें। मनोविज्ञान का मानना भी है कि विद्यालय समय-सारणी की शुरुआत में कुछ सरल विषय बीच में कठिन विषय फिर अंत में कुछ अन्य सरल विषयों को रखा जाना चाहिए। इस क्रम को ध्यान में रखकर समय-सारिणी का निर्धारण करना चाहिये। विद्यार्थी यह चाहते हैं कि विद्यालय हमें इसी क्रम में कक्षाएं आवंटित करें और निश्चित समय-सारणी के आधार पर कक्षाओं का संचालन सुनिश्चित करें। वे चाहते हैं कि दूसरे/तीसरे घंटे में गणित की पढ़ाई हो तथा खेल संबंधी विशेष प्रावधान अंतिम कक्षाओं में जरूर किया जाय। ज्यादा बेहतर तो यह होगा कि अध्यापक भी विद्यार्थियों के साथ पर्याप्त सहयोग करें । एक विद्यार्थी तो यह लिखता है कि हमारी हिंदी टीचर से गुजारिश है कि पढ़ाते समय केवल स्वयं ही ना पढ़ें बल्कि छात्रों से भी पढ़वाएं । एक छात्रा ने तो यह भी लिखा कि हमारी बातों को अध्यापक को सुनना चाहिये। अधिकतर विद्यार्थियों का यह मानना है कि अध्यापक अपनी नैतिक जिम्मेदारी का पूरा-पूरा निर्वहन नहीं करते हैं । इसलिए विद्यार्थियों ने लिखा कि अध्यापक टाइम पर कक्षा में आयें और पूरा समय पढ़ाने का प्रयास करें । यह कथन अध्यापकों के नैतिकता पर बहुत बड़ा सवाल खड़ा करता है। वास्तव में अध्यापकों की नैतिकता का यह कोई नया मामला नहीं है; अधिकतर समाचार पत्रों की सुर्खियों में यह बात आती रहती है कि अध्यापक रेगुलर विद्यालय जाते नहीं हैं और यदि जाते भी हैं तो नियमित विषय अध्यापन के बजाय चर्चा-परिचर्चा में मशगूल रहते हैं ।
अनुशासन, सहयोग एवं अभिप्रेरणा संबंधी अपेक्षा :
विद्यार्थियों की विद्यालय से अपेक्षा है कि जो अनुशासन विद्यार्थियों के लिए लागू किया जाता है वह विद्यार्थियों की राय-मशवरा के बाद तैयार किया जाय। कुछ विद्यार्थी तो यह भी चाहते हैं कि अध्यापकों और कर्मचारियों के लिए भी अनुशासन संबंधी मापदंड निर्धारित किया जाय। अध्यापक भी अपनी ज़िम्मेदारी का सही से निर्वहन करें।
अनुशासन केवल विद्यार्थियों के लिए नहीं होना चाहिये। अनुशासन तो प्रत्येक अध्यापक एवं कर्मचारी के लिए भी होना चाहिए। विद्यार्थियों का कहना है कि एक विद्यार्थी के रूप में विद्यालय में हमारा भी महत्त्व होना चाहिये। विद्यार्थियों की बातों पर विशेष फोकस किया जाना चाहिए । एक छात्र या छात्रा के रूप में हम अपनी कक्षा में कैसा माहौल बनाना चाहते हैं इसके लिए अध्यापक हमसे बात करें फिर विद्यार्थी और अध्यापक मिल-जुल करके कक्षा में भी और विद्यालय प्रांगण में भी अनुशासन बनाएं । हमें अपना महत्त्व और सम्मान जब नजर आता है तो हम भी अध्यापकों के साथ सहयोग करने को तत्पर होते हैं । विद्यार्थी चाहते हैं कि विद्यालय के प्रधानाचार्य और अध्यापक लगातार हमें अपनी वाणी, कार्य-पद्धति और व्यवहार से प्रेरित करें । हमें लगातार आगे बढ़ाने का प्रयास करें । प्रार्थना के समय सूक्ति एवं विभिन्न श्लोगन के माध्यम से हमें प्रेरित करें ।
भविष्य की चिंता, परामर्श एवं निर्देशन संबंधी अपेक्षा :
विद्यार्थियों ने बताया कि हमें भविष्य की चिंता सताती है । हम चाहते हैं कि हमारे विद्यालय के अध्यापक हमारा मार्गदर्शन करें। विद्यार्थियों को आवश्यकता पड़ने पर परामर्श दें। विषय चयन, मार-पीट, आपसी झगड़ा इत्यादि की स्थिति में विद्यार्थियों का उचित मार्गदर्शन करें न कि उन्हें डाटें-फटकारें। भविष्य में विद्यार्थी किस क्षेत्र में बेहतर कर सकते हैं, यह अध्यापक से बेहतर कोई दूसरा व्यक्ति नहीं जान सकता है। एक अध्यापक सही मायने में विद्यार्थियों की शक्ति, अभियोग्यता, क्षमता इत्यादि को बहुत अच्छी तरीके से जनता है। अध्यापक को यह भी पता होता है कि कौन सा छात्र किस क्षेत्र में कितना बेहतर कर सकता है। अतः जरूरत इस बात की है कि अध्यापक विद्यार्थियों को भावी नागरिक निर्माण की अपनी भूमिका का निर्वहन समुचित ढंग से करें। विद्यार्थीगण यह चाहते हैं कि अध्यापक हमारी मदद करें ताकि वे एक अच्छा नागरिक बनकर देश की सेवा कर सकें ।
शैक्षिक निहितार्थ :
● शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में अधिगमकर्त्ता के अधिकतम प्रतिभाग को सुनिश्चित करने हेतु अध्यापकों को विशेष प्रयत्न करना चाहिए।
● प्रधानाचार्य एवं अध्यापकों द्वारा अधिगमकर्त्ताओं को पर्याप्त जगह (स्पेस) देकर उनसे यथार्थ प्रतिपुष्टी लिया जाना चाहिए।
● अधिगमकर्त्ताओं की आवश्यकता, रुचि प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर समय-सारिणी का विकास करना चाहिए।
● अधिगमकर्त्ताओं की अपेक्षाओं को जानकर वास्तविक ‘विद्यार्थी केन्द्रित’ विद्यालयी वातावरण का निर्माण किया जा सकता है।
● विद्यालयी क्रिया-कलापों के समुचित निर्वहन हेतु कार्य-योजना निर्माण समिति में अधिगमकर्त्ताओं (या कम से कम उनके वास्तविक प्रतिनिधियों) को भी शामिल करना चाहिए।
● अधिगमकर्त्ताओं को अनुशासन संबंधी नियमों के निर्धारण में सम्मिलित करके विद्यार्थियों द्वारा अनुशासन भंग करने की घटना को न्यूनतम किया जा सकता है।
● विद्यालयी तंत्र यदि अधिगमकर्त्ताओं की अपेक्षानुसार अपनी कार्य-संस्कृति को विकसित करके अपने लक्ष्यों की प्राप्ति कर सकता है।
निष्कर्ष :
उपरोक्त समस्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि विद्यार्थियों की विद्यालय से बहुत अपेक्षाएँ होती हैं। विद्यार्थी यह चाहते हैं कि विद्यालय उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरे। लेकिन वास्तविकता में ऐसा होता नहीं है जबकि होना अवश्य चाहिये। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था विद्यार्थियों के लिए सपोर्ट सिस्टम की तरह कार्य करना चाहिये। इस शोध अध्ययन के निष्कर्ष स्वरूप में यह कहा जा सकता है कि 21वीं सदी में भी विद्यालय विद्यार्थियों की अपेक्षा-उम्मीद पर खरे नहीं उतार पा रहे हैं। मूल-भूत जरूरतों को भी नहीं पूरा किया जा रहा है। साफ-सफाई जैसी अत्यावश्यक कार्य में भी लापरवाही बरती जा रही है। जिसके परिणामस्वरूप विद्यार्थियों का न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक विकास भी अवरुद्ध हो रहा है। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया भी प्रभावित हो रही है। इन तमाम मुद्दों पर विद्यालय प्रबंध-तंत्र को विशेष ध्यान देने की जरूरत है। साथ ही यह भी निष्कर्ष निकलता है कि बच्चे बहुत अच्छे से प्रत्यक्षण करते हैं । अतः विद्यालय प्रबंध-तंत्र को विद्यार्थियों से विचार-विनिमय करते रहना चाहिये; ताकि विद्यार्थी अपने सुझाव से विद्यालय की बेहतरी में योगदान भी दे सकें।
● आप भी अपने मौलिक शोधपत्र /शोधलेख गूगल पर अपलोड कराने हेतु भेजने हेतु 09027932065 पर संपर्क करें।
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