भारत की सरहद के पार विश्वभाषा के रूप में हिंदी का स्वरूप
डॉ. शैलेन्द्र कुमार शर्मा
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आज अगर हम हिंदी की बात करें तो हिंदी जिस तरह भारत भर के विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच सांस्कृतिक सेतु बनी हुई है, ठीक उसी प्रकार की भूमिका यह भारत की सरहद के पार निभाती आ रही है। यह सिडनी, सिंगापुर, बैंकॉक, दुबई से लेकर इटली, लंदन, न्यूयार्क, सैन फ्रांसिस्को तक दुनिया के तमाम नगरों-महानगरों में भारतवासियों के बीच सांस्कृतिक मेलजोल और वैचारिक आदान-प्रदान की भाषा बनी हुई है, वहीं दक्षिण एशिया के लाखों पर्यटकों के मध्य सूचना-संचार की भाषा के रूप में उनके दैनन्दिक जीवन से लेकर व्यवसाय को भी आधार दे रही है। भारत के बाहर जिन देशों में हिंदी का व्यवहार विचार-विनिमय की भाषा से लेकर सांस्कृतिक गतिविधियों और अध्ययन-अध्यापन में होता आ रहा है। उन्हें हम पांच प्रवर्गों में बाँट सकते है। पहला प्रवर्ग जहाँ भारतीय मूल के लोग बड़ी संख्या में रहते हैं, जैसे- अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव आदि। दूसरा प्रवर्ग भारतीय संस्कृति से गहरे प्रभावित दक्षिण पूर्वी एवं मध्य एशियाई देशों का है, जैसे- इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, कंबोडिया, चीन, मंगोलिया, कोरिया, जापान आदि। तीसरा प्रवर्ग उन देशों का है, जहाँ उपनिवेशकाल में बड़ी संख्या में प्रवासी भारतीयों को ले जाया गया, जैसे- मॉरीशस, फ़िजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद और टोबैगो सेशल्स आदि। इन लोगों ने अपनी परंपरा और संस्कृति का संरक्षण इसी भाषा के माध्यम से किया। रामचरितमानस और अन्य धार्मिक पुस्तकों के माध्यम से उन्होंने अपनी भाषा को जीवंत रखा। चौथा प्रवर्ग उन देशों का है जहाँ हिंदी को विश्व की एक आधुनिक भाषा के रूप में अपनाया जा रहा है, जैसे- अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और इंग्लैंड सहित यूरोप के कई देश। पाँचवें प्रवर्ग में अरब और अन्य इस्लामिक देश रखे जा सकते हैं, जहाँ बड़ी संख्या में भारतवंशी विभिन्न सेवाओं में हैं, जैसे- संयुक्त अरब अमीरात, ईरान, कतर, ओमान, कुवैत, उज़्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान आदि।
प्राज्ञ साहित्य/नवम्बर 2018-जनवरी 2019/08
इन सभी क्षेत्रों में हिंदी की महत्ता रोजमर्रा के कामकाज से लेकर सांस्कृतिक गतिविधियों और अन्य प्रयोजनों में बनी हुई है । हिंदी भारत में बोले जाने वाले नए बोली रूप यथा मुंबई या कलकृतिया हिंदी की तरह हिंदी के कई नए बोली रूप देश की सीमा से परे विकसित हुए हैं। जिनके पीछे विशिष्ट सांस्कृतिक और भाषाई आधार रहे हैं। इन नव विकसित बोली रूपों में उल्लेखनीय है- मॉरीशसी हिंदी, सरनामी हिंदी, फ़िजीयात, नैताली हिंदी, सिंगापुरी हिंदी, अरबी हिंदी, लंदनी हिंदी, नेपाली हिंदी आदि। उज्बेकिस्तान और तजाकिस्तान में बोली जाने वाली 'पार्या' भी हिंदी की ही एक भाषिक शैली है जिसके लिए 'ताजुज्बेकी हिंदी' नाम भी सुझाया गया है। हिंदी के ऐसे अनेक रूप दुनिया के कोने-कोने में विकासमान हैं, जिनमें स्थानीय संस्कृति और भाषा और बोलियों का जैविक संयोग हो रहा है। हिंदी की यह नई बोलियाँ विश्व-आँगन से लेकर लोक व्यवहार तक अटखेलियां कर रही हैं।
भारतीय संस्कृति की सुवास दुनिया के अनेक देशों में परिव्याप्त है। सुदूर अतीत में संस्कृत, पाली और प्राकृत के माध्यम से सांस्कृतिक उपादान और संकल्पनाएँ तमाम देशों तक पहुंचीं, जिनकी जीवंत छाप आज भी वहाँ मौजूद है। इसी तरह ब्राह्मी और उसकी विभिन्न शैलियों से कई देशों की लिपियों के विकास की राह सुगम हुई। थाईलैंड यात्रा के दौरान मैंने अनेक स्तरों पर भारत की प्रतिनिधियों और प्रतिबिंबों को अनुभव किया था। इसी प्रकार की स्थितियाँ कंबोडिया, म्यांमार, मलेशिया, इंडोनेशिया, वियतनाम, श्रीलंका सहित एशिया के अनेक देशों में देखी जा सकती हैं। सांस्कृतिक सेतु का जो कार्य कभी संस्कृत सहित प्राचीन भाषाएँ करती थीं। वही कार्य आज हिंदी कर रही है। आधुनिक दौर में मॉरीशस, फ़िजी, सूरीनाम, जमैका, त्रिनिदाद और टोबैगो, गुयाना, दक्षिण अफ्रीका जैसे कई देशों में किसान और श्रमिक नई संभावनाओं की तलाश में गए, तब से वे हिंदी और उसके विविध बोली रूपों की गंद को आज भी जीवंत बनाए हुए हैं। इस दृष्टि से हिंदी की वैश्विक महत्ता भारतीय संस्कृति, परंपरा और जीवन मूल्यों को विस्तारित करते हुए तमाम देशों के साथ सांस्कृतिक संबंध को मजबूती देने में है।
प्राज्ञ साहित्य/नवम्बर 2018-जनवरी 2019/09
दूर देशों तक पहुँचे श्रमिकों, किसानों, कारीगरों और बहला-फुसलाकर बंधक बनाये गए भारतीयों के साथ हिंदी सदियों से उनकी संस्कृति और धर्म के साथ गहरा अनुराग और रिश्ता कायम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। जो लोग पिछली लगभग दो सदियों से भारत से बाहर गए थे, उनके पास तुलसीकृत रामचरितमानस, हनुमान चालीसा, सुखसागर, आल्हा, महाभारत, गीता आदि सुरक्षित रहे। भारतीय संस्कृति और मूल्यों के वैश्विक विस्तार में रामकथा की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। सुदूर अतीत में रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ एशिया के अनेक देशों तक पहुंचे और वहाँ काव्य और कला परंपराओं के उपजीव्य बने थे, ठीक वही स्थिति पिछली शताब्दी में रामचरितमानस के साथ बनी। आज परिवार जीवन से लेकर विश्व फलक पर रामकथा में निहित मूल्यों का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। अखंड मानवता और विश्व शांति की पक्षधरता इस महान कथा को विलक्षण बनाती है। श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, मलेशिया और इंडोनेशिया से लेकर मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद तक इस कथा की काव्य, नाट्य, नृत्य, रामचरितमानस पाठ, चित्र, शिल्प आदि रूपों में अभिव्यक्ति के साथ हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का सीधा रिश्ता रहा है।
आज इस रिश्ते को और मजबूत बनाने की जरूरत है। तभी हम भारत की सीमाओं से परे बसे 'लघु भारत' को अपने मूल रूप में चरितार्थ कर सकेंगे। तुलसीकृत रामचरितमानस भारत से बाहर लगभग तीन करोड़ लोगों की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में जीवंत है। सूरीनाम जैसे कई देशों में दशहरे से पहले खेली जाने वाली रामलीला की प्रदर्शन शैली काशी के रामनगर की प्रसिद्ध रामलीला से प्रेरित है। इसी तरह संत कबीर के आंतर-बाह्म परिवर्तनकामी स्वर की अनुगूँज अनेक देशों के भारतवंशी समुदायों में आज भी सुनाई देती है। इन लोगों ने रासलीला, नौटंकी, बिरहा, भगवा जैसी अनेक लोक विधाओं को आज भी जीवंत रखा है। विवाह सहित विविध संस्कारो, व्रत-पर्व-उत्सवों और अनुष्ठानों में भारतीयता का रंग और हिंदी की बोलियों का माधुर्य आज भी उनके सिर चढ़कर बोलता है। स्पष्ट है कि भारतवंशियों की इस यात्रा में उनकी अनेक पीढ़ियां गुजर गयी, फिर भी वे हिंदी के साथ भारतीय संस्कृति-धर्म-दर्शन, परंपराओं और रीति-रिवाजों से स्वयं को जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। उनकी यह निरंतर कोशिश रहती है कि भारतीय चिंतन और मूल्य पद्धति को अपनाए रखें और उसका अपनी नई पीढ़ी में हस्तांतरण भी करें।
प्राज्ञ साहित्य/नवम्बर 2018-जनवरी 2019/10
भारतीय संस्कृति के ज्ञान और मनोरंजन की दृष्टि से हिंदी की असरकारक भूमिका किसी से छिपी नहीं है। फिल्म, टेलीविजन, एफ एम चैनल के जरिए हिंदी भाषी ही नहीं, बल्कि हिंदीतर भाषी भी बड़ी संख्या में भारतीय संस्कृति और कला परंपरा से जुड़े रहे हैं, फ़िजी, सूरीनाम, मॉरीशस जैसे कई देशों में हिंदी के संरक्षण में भारतीय संगीत और नृत्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। भारतीय शास्त्रीय और लोक संगीत एवं नृत्य से लेकर आधुनिक सिने संगीत और नृत्य के माध्यम से बड़ी संख्या में दुनिया भर में फैले भारतवंशी जुड़े हुए हैं। जिन्हें हिंदी मजबूत आधार दे रही है। आधुनिक युग में वैश्विक स्तर पर हिंदी की स्वीकार्यता और लोकप्रियता के लिए हिंदी सिनेमा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। वह भारतीय संस्कृति और मूल्यों के प्रसार में विशिष्ट योगदान देता आ रहा है और दूर देशों में उसने अपना बहुत बड़ा दर्शक वर्ग तैयार कर लिया है। हिंदी सिनेमा और सिनेगीतों के कारण हिंदी प्रवासियों की प्रवृत्ति हिंदी सीखने की ओर बढ़ी है। मॉरीशस, फ़िजी, सूरीनाम, श्रीलंका जैसे कई देशों में हिंदी गानों, फिल्मों, धारावाहिकों तथा अन्य कार्यक्रमों के माध्यम से हिंदी के प्रति आकर्षण चरम पर दिखाई देता है। फ़िजी, सूरीनाम सहित कई देशों के प्रमुख नगरों में शायद ही कोई ऐसा सिनेमा घर होगा, जहाँ हिंदी फिल्म न दिखाई जाती हो। फ़िजी में बसे भारतीय लोगों के अतिरिक्त अन्य भाषा भाषी लोगों में भी, जो फ़िजी के मूल निवासी हैं, हिंदी फिल्में देखने का बड़ा शौक है। एक समय सभी लोग अपने-अपने टेलीविजन पर वीडियो फिल्म देखते थे। हिंदी वीडियो फिल्म यहाँ सर्वाधिक देखी जाती थीं, कभी स्थान-स्थान पर हिंदी वीडियो फिल्में किराए पर देने वाली दुकानें थी, अब उनकी जगह इंटरनेट माध्यम ने ले ली है। सिने निर्माताओं की आय का बहुत बड़ा हिस्सा विदेशों में फिल्म के वितरण और अधिकार देने से प्राप्त हो रहा है। हाल ही में सफल हुई हिंदी की अनेक फिल्मों ने इसके माध्यम से बहुत बड़ी पूँजी जुटाई है। यही वजह है कि हिंदी की बड़े बजट की फिल्में मुंबई, दिल्ली के साथ लंदन, न्यूयार्क सहित दुनिया के तमाम शहरों में सबसे पहले प्रदर्शित की जाती हैं। यूरोप, अमेरिका सहित कई देशों में हिंदी और हिंदीतर भाषी परिवारों के लिए हिंदी फिल्में भारत से जुड़ने के एक सशक्त साधन के रूप में देखी जा सकती हैं। वहाँ भारत से जुड़ाव के लिए हिंदी फिल्मों के अतिरिक्त टी.वी. धारावाहिकों, समाचार चैनलों और क्रिकेट का भी अहम योगदान रहा है।
प्राज्ञ साहित्य/नवम्बर 2018-जनवरी 2019/11
दुनिया के तमाम देशों से अलग-अलग प्रयोजनों से भारत आने वाले लोगों के लिए हिंदी सदियों से भारतीय संस्कृति और परंपराओं का प्रवेश द्वार रही है। यूरोपीय देश से आए अनेक प्रवासियों ने पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी में भारत के साथ नए रिश्ते की शुरुआत की थी, तब उन्होंने भारतीय संस्कृति की पहचान के लिए हिंदी सहित विभिन्न भाषाओं के प्रति अपना गहरा लगाव दिखाया था। इसी की फलश्रुति के रूप में उस दौर की हिंदी के अनेक व्याकरण, शिक्षण सामग्री और शब्दकोश अस्तित्व में आए थे। इन्हीं की नींव पर यूरोपीय देशों में भारतीय संस्कृति और हिंदी के अध्ययन-अनुसंधान का नया सिलसिला शुरू हुआ, जो आज भी जारी है। विदेशी मूल के अनेक लेखकों, विद्वानों ने भारतीय संस्कृति और हिंदी के प्रति आत्मीय जुड़ाव के साथ इनके विविधायामी विकास में अविस्मरणीय योगदान दिया है। जॉन जोशुआ कैटेलर, डॉ॰ कैलाग, दिमशिल्स, बारात्रि्कोव, डॉ. लोचन लुत्से आदि का कार्य आज भी मील का पत्थर बना हुआ है। दुनिया भर में फैले प्रवासी भारतीयों के लिए हिंदी भाषाई-सांस्कृतिक पहचान को रूपायित करने के साथ अपनी संवेदना, अनुभव और विचारों को अभिव्यक्त करने का समर्थ माध्यम रही है। वर्तमान दौर में सक्रिय कई प्रवासी साहित्यकार, ब्लॉगर, पत्रकार, संस्कृतिकर्मी आदि इसी रूप में हिंदी को आत्माभिव्यक्ति का माध्यम बनाये हुए हैं। हिंदी विश्व के विस्तार में प्रवासी साहित्य की अविस्मरणीय भूमिका रही है। विदेशों में बसे ऐसे अनेक प्रवासी साहित्यकारों को विशिष्ट पहचान मिलने लगी है। हाल ही में कुछ विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में देशांतर में हिंदी की व्यप्ति के साथ हिंदी डायस्पोरा को शामिल किया गया है। मॉरीशस से अभिमन्यु अनत (कथा साहित्य), अमेरिका से सुषम वेदी (कथा साहित्य), सुधा ओम ढींगरा (कहानी), सुदर्शन प्रियदर्शिनी (उपन्यास, कहानी और कविता), अनिल प्रभा कुमार (कहानी और कविता), ब्रिटेन से मोहन राणा (कविता), ज़किया जुवैरी (कहानी), तेजेंद्र शर्मा (कहानी), दिव्या माथुर (कहानी), डेनमार्क से अर्चना पैन्यूली (उपन्यास), शारजहा से पूर्णिमा बर्मन (कविता), सिंगापुर से श्रद्धा जैन (ग़ज़ल) जैसे कई लेखक अध्ययन-अध्यापन के अंग बने हैं, वहीं प्रवासी साहित्य पर अनुसंधान की नई राह खुल गई है। विगत दशकों में अनेक लेखकगण दुनिया के तमाम देशों में सृजनरत रहे हैं। इनमें उल्लेखनीय हैं- सोमदत्त बखोरी, मुनीश्वर चिंतामणि, प्रो. वासुदेव विष्णुदयाल, पूजानंद नेमा, रामदेव धुरंदर, राज हीरामन, राजरानी गोविन (मॉरीशस), पं. कमलाप्रसाद मिश्र, जोगिंदरसिंह कँबल, विवेक आनंद शर्मा (फिजी), सुरेशचंद्र शुक्ल, शरद आलोक (नॉर्वे), कविता वाचक्नवी (यूके), स्नेह ठाकुर (कनाडा), अनिता कपूर, अंजना संधीर (यूएसए) आदि। वस्तुतः देश दुनिया के कई विश्वविद्यालयों की पाठ्यचर्या और शोध की दृष्टि से हिंदी में जारी प्रवासी लेखन को लेकर पैदा हुए नए रुझान और सक्रियता को शुभ संकेत माना जा सकता है, जो भारतीय संस्कृति और हिंदी विश्व को नूतन परिप्रेक्ष्य दे रहा है।
आचार्य, हिन्दी अध्ययनशाला एवं कुलानुशासक, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म॰प्र॰)
प्राज्ञ साहित्य/नवम्बर 2018-जनवरी 2019/12
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