धरा कहे पुकार के (कविता)

धरा कहे पुकार के



डॉ मधुछन्दा चक्रवर्ती, बेंगलूरु (कर्नाटक) भारत 


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धरा कहे पुकार के,


हे मानव! सुन जरा।


ये धरती तेरी है,


तु है इस धरती का।


 


फिर क्यों तू अपने स्वार्थ में,


इसे नष्ट करने पर तुला है?


अपनी उन्नति के चक्कर में


वर्षों की मेहनत को काट रहा है?


न वन बचे हैं, न बाग


तून फैलायी है, उन्नति के नाम पर आग।


 


नदियों का पानी दूषित,


मिट्टी हो रही है पतित,


हवा में विष घोल रहा है तू,


फिर भी दोषी प्रकृति? रे भ्रमित।


 


उन्नति के रास्ते ये धरती देती थी खोल,


जब-जब तूने चाहा, बोल?


तेरी भूख मिटाने को इसने कितने मीठे फल दिए


मगर तूने इसके गर्भ में ही ज़हर हैं घोल दिए।


इसे उकसा कर तूने स्वयं विनाश को दिया न्योता,


अब निपटने के लिए लगा रहा है तू गोता।


 


ज़रा सोच तूने जो कभी इसकी फ़िक्र की होती,


ज़रा सोच तूने जो कभी इसका भी दिल देखा होता,


आज तेरी ये दुर्गति न होती,


ये धरती तेरी ही होती


तू इसका होता।


सुन्दर-शष्य-श्यामला होती,


अंतरिक्ष की ये मोती।


 


परिचय-



डॉ मधुछन्दा चक्रवर्ती


जन्म-23 अप्रैल 1983


जन्मस्थान– मणिपुर इम्फाल


शिक्षा– एम. ए (हिन्दी), पी.एच.डी




कहानी- बुलबुला, फैसला(समनव्य पूर्वोत्तर पत्रिका में प्रकाशित), मासूम(साहित्य सुधा वेब पत्रिका में प्रकाशित) दावानल(विश्व हिन्दी साहित्य मॉरिशस में प्रकाशनाधीन)


कविता- बचपन से आजतक, एक दिन, भूख, रिश्तें,ऐसा क्यों होता है?, मेरे बाग के फूल, रंग जिन्दगी के, सवाल नज़रों का, हज़ारों ख्वाहिशें दिल में, न मजबूर करों किसी को, चाह कर भी, तेरे साथ -(अनुभूति, मुक्त कथन, तथा वैश्य-वसुधा तथा प्रतिध्वनि पत्रिका में प्रकाशित) विशाल गगन, हौसल( साहित्य सुधा वेब पत्रिका में प्रकाशित),


आलोचना- उपन्यासकार निराला--एक अध्ययन(पुस्तक) 


33 शोधालेख विभिन्न शोध पत्रिकाओं तथा पुस्तकों में प्रकाशित।



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