मातृभाषा को संभालने की जरुरत (मातृ भाषा दिवस पर विशेष लेख)

मातृभाषा को संभालने की जरुरत



डॉ0 गिरीश्वर मिश्र, गाजियाबाद (उ0प्र0) भारत 


*************************************************


यूनेस्को ने 21 फरवरी को 'मातृ भाषा दिवस' मनाने का निश्चय करने के बाद भारत सरकार ने भी इसका फरमान जारी किया है और इसके आयोजन के निर्देश दिए हैं। शैक्षिक संस्थानों द्वारा आयोजित किए जाने वाले कृत्यों की सूची में अब यह भी शामिल है। ऐतिहासिक रूप से यह दिन पड़ोसी बांग्लादेश में भाषा के संरक्षण के प्रश्न को लेकर आम जनों की चिंता और छात्रों के आंदोलन और बलिदान की स्मृति से जुड़ा हुआ है। यह अवसर जीवन में भाषा की केंद्रीयता पर सोचने को मजबूर करता है और उसके समादर के लिए प्रेरित करता है। 


भारत एक बहु भाषाभाषी देश है। वहाँ की अनेक भाषाओं का बड़ा ही समृद्ध और गौरवशाली साहित्य है। यह भाषाई बहुलता हमारी बड़ी विरासत जिसकी रक्षा और सम्बर्धन सबका दायित्व बनता है। चूँकि भाषा और बोली के बीच की सीमा रेखा धूमिल सी है इसलिए कुल कितनी भाषाएँ हैं यह कहना टेढ़ा काम है। तथापि इस बात पर लगभग सहमति सी है कि 125 मुख्य भाषाएँ और 800 सहायक भाषाएँ भारत में बोली जाती हैं। इस तरह वे सभी मातृ भाषाएँ हैं। इस सिलसिले में संविधान की 8वीं अनुसूची का जिक्र अक्सर आता है जिसमें 22 भाषाओं की सूची दी गयी है। सरकारी भाषाओं के ऐक्ट में, जो 1963 में बना और 1967 में संशोधित हुआ, संघ की भाषा, संसदीय कार्य , केंद्रीय और सरकारी काम आदि और कुछ कायों हेतु उच्च न्यायालय में भाषा विषयक प्रावधान किए गये हैं। इसके उपबंध 343, 344 तथा 348 एवं 349 के अनुसार अंग्रेजी और हिंदी संघ की सरकार, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय हेतु राज भाषाएँ हैं। 1968 के संकल्प के अनुसार 8वीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाएँ और अंग्रेजी को अखिल भारतीय तथा उच्च केंद्रीय सेवाओं की परीक्षा में वैकल्पिक माध्यम की अनुमति संघीय लोक सेवा आयोग के साथ परामर्श के आधार पर भविष्य दी जायगी। उपबन्ध 345 के अनुसार राज्य में प्रयुक्त कोई भाषा या हिंदी का उपयोग सम्भव है। 


कहना न होगा कि भाषा एक विलक्षण किस्म की मानवी रचना है, पर हमारे निजी और सार्वजनिक जीवन को अद्भुत ढंग से रचती रचाती चलती है. वह हमें न केवल अभिव्यक्ति की दृष्टि से शक्तिसंपन्न बनाती है बल्कि इसके सहारे हम सोचते हैं और नए क्षेत्र में कल्पना की उड़ान भी भरने लगते हैं। इस तरह भाषा यथार्थ की रचना करने में सहायक होती है। निश्चय ही भाषा इस धरती पर होने वाला सबसे बड़ा आविष्कार और सामाजिक उपलब्धि है पर इसका उपयोग हम कैसे करते हैं यह हमारी अपनी वरीयताओं पर निर्भर करता है। 


भाषा संचार का साधन है और सूचना और ज्ञान के संरक्षणका उत्कृष्ट उपाय है। वह उपलब्ध ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे ले जाना भी संभव और सुकर बना देती है। चूँकि 'भाषा प्रतीकों की एक सी व्यवस्था होती है जो समाज के द्वारा स्वीकृति प्राप्त कर चुकी होती है। वह समाज के अस्तित्व के साथ विशेष रूप से जड़ जाती है और उसकी अस्मिताएं बनाने में खास भूमिका निभाती है। अतः भाषा का प्रयोग ही भाषा के अस्तित्व और शक्ति को सुनिश्चित करता है। यह अनुमान किया जा रहा है कि प्रतिदिन जाने कितनी भाषाएँ मर रही हैं क्योंकि उनके बोलने वाले मर रहे हैं। ऐसे में भाषाएँ ऊँच नीच की एक हायराकी में स्थापित हो कर जीती हैं और शक्तिसंपन्न भाषा दूसरी कम शक्ति वाली भाषाओं को दवा देती है। गौरतलब है कि समाज में किसी भाषा का सत्ता के साथ जुड़ना उसे सीधे-सीधे सामाजिक न्याय के प्रश्न से जोड़ देता है। अक्सर भाषाओं के प्रयोक्ता की हैसियत और सामाजिक प्रतिष्ठा भाषा की हैसियत और प्रतिष्ठा बन जाती है। यद्यपि इसके कुछ अपवाद भी हो जाते हैं। उदाहरण के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना अवधी भाषा में की और संस्कृत के भाषिक आभिजात्य से न जुड़ कर भी वह रचना जनता जनार्दन में ऊँची प्रतिष्ठा पा सकी। ऐसे ही जायसी, सूर, कबीर, रहीम की कविता भी जन सामान्य में लोकप्रिय और प्रतिष्ठित हुई। 


आम तौर पर भाषा का भविष्य और क्षमता उसके प्रयोक्ता पर ही निर्भर करती है। भारत में प्रायः लोग दो भाषाएँ बोलते हैं या कहें द्विभाषी व बहू भाषाभाषी हैं। उत्तर भारत में भोजपुरी, हिंदी और अंग्रेजी प्रचलित हैं जिनका उपयोग लोग घर और बाहर अलग-अलग मौकों पर करते हैं। थोड़ा और ध्यान दें तो यह स्ष्ट हो जाता है कि सामाजिक यथार्थ के स्तर पर भाषा हमें जोड़ती है और तोड़ती भी है। वह संवाद को संभव बना कर लोगों को आपस में जोड़ कर सहयोग की ओर ले चलती है। दूसरी ओर भाषा से अपरिचय दूरी बढ़ा कर हिंसा तक पैदा कर देता है। दुर्भाग्य से भाषाओं को आधार बना कर देश का विभिन्न प्रदेशों की इकाइयों में विभाजन की घटना ने समाज में मानसिक चहारदीवारियाँ खड़ी कर दो और उत्तर और दक्षिण में गहरा भेद खड़ा कर दिया। दूसरी ओर सभी भारतीय भाषाओं के सामने विदेशी भाषा अंग्रेजी खड़ी हो गयी जिसने समाज में शक्ति और अधिकार की, ऊँच और नीच की, ज्ञान और जड़ता की, शासक और शासित की श्रेणियां बना दी। अंग्रेजी ने इतनी गहरी खाई खोद दी जिसे पाट पाना मुश्किल होता गया। औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों की रीति नीति से भारत में जो धारा चल निकली कमोबेश वही अभी भी प्रवाहित रही है। अंग्रेजी का एकाधिकार बन गया, वही सरकारी काम-काज, न्याय और ज्ञान सबकी भाषा बन गयी। अंग्रेजी हमारी पहचान और अदर्श बन गयी। हमारी महत्वाकांक्षा अंग्रेजी बोलने और अंग्रेज़ की तरह बनने दिखने में ही समा गयी। आज की परिस्थिति किसी से छिपी नहीं है। वांछित भाषा न जानने के कारण आम नागरिक के लिए अपनी भूमिकाओं का निर्वाह करना प्रायः कठिन हो जाता है। इसका परिणाम होता है कि वे उन सामान्य अधिकारों से भी वंचित हो जाते हैं जो उन्हें नागरिक के रूप में मिलने चाहिए, उनके दैनिक कार्यों के सम्पादन की गति धीमी पड़ जाती है और व्यवधान पड़ने से उनका नुकसान होता है। 


भाषा का सबसे घनिष्ठ सम्बन्ध शिक्षा से है जो समाज के मानस और कौशल के विकास को निर्धारित करती है।  यह एकदुखती रग है जिस ओर चाहते हुए भी आवश्यक ध्यान नहीं दिया जा सका है। शिक्षा जगत और सरकारी हल्कों में मानसिक अवरोध बना हुआ है जिससे जान बूझकर छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि नकारात्मक ढंग से प्रभावित होती है। अंग्रेजी को प्राथमिकता मिलने से गैर अंग्रेजी छात्र छात्राएं व्यावसाविक जीवन में पिछड़ जाते हैं। उनमें हीनता का भाव पैदा होता है।  टूटे हुए मनोवल से काम करते हुए उनमें हिंसा का भाव भी उपजता है। यह एक कटु तथ्य है कि भाषाजन्य भेदभाव पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है और उससे उबरना प्रायः कठिन होता है। इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि उसका संचित परिणाम सामाजिक आर्थिक विकास को बाधित करता है। भारत के लिए नई शिक्षा नीति बन रही है आशा की जाती है कि है सबका साथ सबका विकास के लक्ष्य से प्रतिबद्ध सरकार मातृ भाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप, कम से कम प्राथमिक स्तर पर, अनिवार्य करेगी।  


 


लेखक परिचय-


डॉ गिरीश्वर मिश्र
शिक्षा- परास्नातक एवं पीएच0डी0
कार्यक्षेत्र -पूर्व कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा(महाराष्ट्र)                   


हिंदी को समर्पित समस्त प्रकार की खबरों, कार्यक्रमों तथा मिलने वाले सम्मानों की रिपोर्ट/फोटो/वीडियो हमें pragyasahityahindisamachar@gmail.com अथवा व्हाट्सएप नंबर 09027932065 पर भेजें।


'नि:शुल्क प्राज्ञ कविता प्रचार योजना' के अंतर्गत आप भी अपनी मौलिक कविताएं हमें pragyasahityahindi@gmail.com अथवा व्हाट्सएप नंबर 09027932065 पर भेजें।


'नि:शुल्क प्राज्ञ लेख प्रचार योजना' के अंतर्गत आप भी अपने लेख भेजने हेतु 09027932065 पर संपर्क करें।


प्राज्ञ साहित्य की प्रति डाक से प्राप्त करने व वार्षिक सदस्यता प्राप्त करने के लिये 09027932065 पर संपर्क कर हमारा सहयोग करें।


'प्राज्ञ साहित्य' परिवार का हिस्सा बनने के लिए 09027932065 पर संपर्क करें।