खूंटी
मूल लेखिका- श्रीमती अनीता चक्रवर्ती, सिल्चर (असम) भारत
अनुवादक- डॉ मधुछन्दा चक्रवर्ती, बेंगलूरु (कर्नाटक) भारत
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(श्रीमती अनीता चक्रवर्ती द्वारा मूल बंग्ला भाषा में लिखित)
अनुवादक – डॉ मधुछन्दा चक्रवर्ती
असम की एक घाटी बराक। बराक नदी की कृपा से चारोंं तरफ हरियाली से भरी धरती शष्य-श्यामला होकर सदियों से बराकवासियों का पालन-पोषण कर रही है। बराक घाटी में कई गाँव हैं, जिनमें से एक गाव है बिहाड़ा। ये गाँव पहाड़ी के नीचे बसा है। चारों तरफ लहलाते खेत, जगह-जगह छोटे-छोटे जंगल और झाड़ियाँ हैं। इस गाँव में एक छोटा सा बाज़ार है जिसके एक तरफ छोटे-छोटे मोहल्लों तक जाने का रास्ता है। वहींं पर बाज़ार से सटी एक गली गुज़रती है जिसके आखिर में टूटा-फूटा सा एक मकान है। वैसे तो मकान पक्का है लेकिन ऐसा लगता है कि सदियों से इसकी न तो ठीक से देखभाल हुई है न ही मरम्मत। उस मकान में रहते हैंं हरिहर दास जी। पक्के मकान की बात से धोका न खाइएगा। हरिहर वैसे तो इस टूटे-फूटे मकान में रहते हैं; पर रोज़गार दीन-मज़दूरी का है। हाँ आज बेचारे की यही हालत है। एक ज़माना था जब हरिहर के दादा-परदादा के पास बहुत सी ज़मीन थी, जायदाद थी। लेकिन हरिहर के दादा के भाई को क्षय रोग हो गया। इलाज के लिए उन्हें अपनी जमीन का कुछ हिस्सा बेचना पड़ा। इसके बाद तो जैसे ये क्रम सा हो गया। भाई के बाद दादा को, फिर दादी को, फिर हरिहर के पिता को भी यही रोग लगा। नज़दीक के शहर में अभी तक इस बीमारी के लिए कोई कारगर इलाज उपलब्ध नहीं था। फिर शहर माने सिलचर जहाँ बिहाड़ा से जाने-आने में बहुत समय लगता था। सड़क मार्ग की अवस्था बहुत ही खराब थी। रेल मार्ग भी था पर वह इतना नियमित नहीं था। यही कारण था कि हरिहर के परिवार वालों को ये बीमारी धीरे-धीरे दरिद्रता की ओर ढकेल रही थी।हरिहर की पीढ़ी तक आते-आते सारी जायदाद बिक चुकी थी। हरिहर के पिता उसे अधिक पढ़ा भी न पाए थे कि वह भी गुज़र गयेे। किसी तरह मन मारकर हरिहर को अपने परिवार के भरण-पोषण का भार लेना पड़ा। हरिहर किशोर हुआ ही था कि वह काम में लग गया। कभी चाय के दुकान में बर्तन मांझने का काम करता तो कभी ट्रक वालों के यहाँ माल ढोने के काम करता। उसके पास कोई निश्चित काम नहीं था। कभी-कभी वह दूसरे मजदूरों के साथ बदरपुर या करीमगंज चला जाता था जहाँ वह दिहाड़ी मजदूरी करके किसी तरह दो वक्त की रोटी कमा लेता। हरिहर के पिता जब तक जीवित थे तो उसे कभी-कभी एक रुपया का सिक्का देते थे जिससे हरिहर बचपन में खेला करता था। उसकी आदत थी कि वह उस सिक्के को घर के पीछे के कमरे के बीच लगे बाँस की खूंटी में छुपा देता था। बड़े होने तक उसने अपने पिता से कई बार जिद करके ही सिक्के लिए और उन्हें वह उसी खूंटी में रख देता था। पिता के देहांत के बाद ये सिलसिला खत्म हो गया। हरिहर को अब जो भी पैसे मिलते वह पहले अपनी माँ को दे देता। माँ उन्हीं पैसों से घर का खर्च चलाती थी। हरिहर की दो बहने थींं, दोनों ही उससे बड़ी थींं। हरिहर पर ये जिम्मेदारी बहुत बड़ी थी। उन्हें किसी अच्छे घर में ब्याह देना जरूरी था। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। हरिहर की बड़ी बहन झूमी अपने पड़ोस में रहने वाले अशीम दर्ज़ी के साथ भाग गयी। बात गाँव में फैल गयी। बहुत बदनामी हुयी। हरिहर की माँ को इस बात का बहुत सदमा लगा। लेकिन ये सदमा सहन करना पड़ा। घर में दूसरी जवान बेटी है, जवान बेटा है। अभिभावक के रूप में केवल वही बची है। हरिहर के बाकी सगे सम्बन्धियों ने अपनी-अपनी राह पकड़ी और सभी बिहाड़ा से बाहर दूसरे गाँव तथा शहर में अपनी किस्मत आज़माने चले गए।
एक दिन माँ ने बुलाकर हरिहर से कहा – बेटा हरिहर, तू अब ये रोज़ की मज़दूरी छोड़। कोई पक्का काम ले ले। ये माम्पी भी अब बहुत जिद्दी हो गयी है। कहती है झूमी के जैसे ये भी जाएगी। पर मैं ऐसा होते नहीं देख पाऊँगी। झूमी ने जो बदनामी हमारे परिवार को दी है वह क्या कम है? आज तेरे पिता जिंदा होते तो ये सब सहन नहीं कर पाते।
हरिहर बोला – माँ तू तो जानती है कि आजकल काम-काज का कितना अभाव है। राज दा के साथ करीमगंज वाले काम में लग जाता तो फिर बहुत कमाई होती। कॉलेज की बहुत बड़ी इमारत बन रही थी। बहुत सारे मजदूर काम पर लगे हैं। मगर इस बदरुद्दीन की वजह से मुझे काम में नहीं लिया गया। वह सिर्फ अपने आदमियों को ही काम दिलवाता है। अब नए काम के लिए सिलचर के अलावा कोई उपाय नहीं है। तू अगर कहे तो कुछ दिनों के लिए सिलचर हो आता हूँ।
माँ ने हामी भरी और हरिहर अपने दूसरे मजदूर साथियों के साथ सिलचर चला गया। इधर माँ बेटी दोनों ने लोगों के घरों में काम ढूँढने शुरू कर दिये। एक बड़े घर में उसकी माँ मानोति को खाना बनाने का काम मिल गया। माम्पी ने भी कुछ घरों में काम ले लिया। गरीबी और अशिक्षित होने के कारण पैसों का सही हिसाब किताब न तो मानोति को था न ही माम्पी को था। उन्हें जो भी पैसा मिलता था वे घर के पास के ‘भूशिमाल’ (बनिए) की दुकान में बैठने वाले राजू से गिनवाते थे। ये दुकान विजय सरकार की थी। उसका भतीजा राजू अक्सर दुकान में बैठता था। उसके पिता नहीं थे, चाचा ने ही उसे पाल पोस कर बड़ा किया था। राजू थोड़ा-बहुत पढ़ा-लिखा था। इसीलिए मानोति या माम्पी को उससे पैसे गिनवाने में कोई आपत्ति नहीं थी। राजू मन-ही-मन माम्पी को चाहता भी था। दोनों फिर एक ही बिरादरी के थे। मगर माम्पी के परिवार की आर्थिक स्थिति तथा हरिहर का दीन-मज़दूरों वालेे काम ने राजू के चाचा की नज़रों में उसे छोटा बना दिया था। यही कारण था कि राजू चाहते हुए माम्पी से शादी का सपना नहीं देख सकता था। पर जब माम्पी या मानोति अपने पैसे गिनवाने आती तो वह चोरी छुपे दो तीन रुपए ज्यादा मिलाकर दे दिया करता था। इसके लिए उसे कई बार अपने चाचा से मार पड़ चुकी थी। उसके चाचा दोनों माँ-बेटी को भी कई बार बातेंं सुना चुके थे। विधवा स्त्री और जवान बेटी का लिहाज जरूर रखते थे। पर उनके लिए यह कम अपमान की बात नहीं थी। माम्पी निर्दोष थी। उसे राजू के प्यार के बारे में पता नहीं था। न ही उसे राजू से ही कोई प्यार था। वह अपनी स्थिति जानती थी। लेकिन घर की परिस्थितियों तथा इन घटनाओं ने बेचारी को बलि के बकरे की तरह चुन लिया था।
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सिलचर में उन दिनों नई-नई कुछ ऊँची इमारतें बन रही थींं। अंबिकापट्टी तथा कॉलेज टिल्ला के आस-पास कुछ नई इमारतें बन रही थी। हरिहर को वहाँ काम मिल गया। वहाँ के कॉन्ट्रेक्टर सज्जन व्यक्ति होने के नाते मज़दूरों की मज़दूरी में किसी तरह की कोई कटौती नहीं करते थे। काम अलबत्ता कड़ाई से करवाते थे। हरिहर को कुछ पैसे कमाने का मौका मिला। उसने उन रूपयों को जोड़ना भी शुरू कर दिया। लेकिन जल्द ही वर्षा शुरू होने वाली थी। घर की टपकती छत और खाली रसोई का ख्याल करके उसने अपनी माँ को कुछ पैसे भी भेजने चाहे थे। लेकिन न तो पोस्ट ऑफिस के जरिए वह मनीऑर्डर भेजना जानता था न ही कोई बिहाड़ा जाने वाला ही उसे कोई मिला। लिहाजा उसके पास दो तीन महिने की कमाई साबूत बची रह गयी थी। जहाँ वह काम करता था वहाँ उसे राजेश नाम का दोस्त मिल गया था जो कि शहर में ही एक छोटे से घर में अपनी घर वाली के साथ रहता था। हरि उसी के साथ वहाँ रह रहा था। उसके भरण-पोषण में जितने रुपए खर्च हो सकते थे वह राजेश को ही दे देता था।
इधर मानोति के लिए माम्पी का मामला सिर दर्द बना हुआ था। माम्पी अब सचमुच ही राजू को चाहने लगी थी। लेकिन अपनी माँ और राजू के चाचा के डर से वह राजू से पैसे गिनवाने नहीं जाती थी। वह घर में ही ज्यादातर रहने लगी। अब उसकी माँ ही काम पर जाती और वह घर पर रहकर घर का काम सम्भालती। उसके मन में राजू से मिलने की इच्छा होती। कभी-कभी वह घर का सामान खरीदने के बहाने राजू की दुकान पर चली जाती। लेकिन उसे ज्यादातर चाचा ही मिलते। राजू को बस देखभर लेने की उसकी चाह पूरी न हो पाती थी। पर जब भी दोनों सबकी नज़र चुरा कर मिलते तो दोनों के चेहरे खिल उठते थे। इसी तरह दिन बितने लगे थे।
कुछ दिनों बाद वर्षा प्रारंभ हुई और जल्द ही बराक नदी में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गयी। बराक घाटी को गुवाहाटी से जोड़ने वाले रास्तें भूस्खलन के कारण बन्द हो गये। शहर क्या, गांव क्या सभी जगह सब्जियों और चावल की कीमतें बाढ़ के पानी की तरह बढ़ने लगींं। इमारतों के निर्माण का काम तेज बारीश की वजह से रुक गया। सभी मजदूर जो दूसरे जिले तथा गाँव से थे वे घर तथा घरवालों की फ़िक्र में लौटने लगे। हरि भी बिहाड़ा जाने के लिए रवाना हुआ। उन दिनों सिलचर से कालाईन फिर बदरपुर होकर बिहाड़ा जाने की सुविधा थी। 404 की बस या कुछ टाटा सूमो की गाड़ियाँ चला करती थी जो भर-भर कर पब्लिक को गाड़ी में उठातींं और कालाईन और बदरपुर के निश्चित जगहों तक पहुँचाती थींं। हरि जब कई महीनों बाद घर पहुँचा तो माँ और बहन दोनों बहुत खुश हुयींं। हरि भी उनकी चिन्ता में इतने दिनों तक परेशान था। माँ ने आते ही अपने नए काम के बारे में बताया तथा उसके काम का हाल-चाल जाना। शाम हो चली थी इसलिए मानोति ने सबके लिए खाना लगा दिया। तीनों के खाना खा लेने के बाद मानोति अपनी नयी मूसीबत के बारे में बताने लगी। हरि पहले तो बात सुनकर सखते आ जाता है। फिर धीरे-धीरे मानोति के समझाने पर वह माम्पी की शादी की तैयारियों में लग गया। सिलेठी समाज में वैसे भी शादियों में दिखावे की गुंजाइश कम ही रहती है। गरीब घर की बेटियों का भी एक जोड़ा कपड़े और शाखा-पोला में कन्यादान हो जाता है। फिर हरि ने तो काफी कुछ पैसे जमा कर लिए थे। माम्पी और मानोति ने भी कुछ रुपए बचाकर रखे थे।
परेशानी इस बात की थी कि माम्पी राजू से शादी करना चाहती थी। माम्पी को वह पसन्द भी था। लेकिन उसके घरवाले दूसरों के घरों में काम करते थे। यही कारण था कि वे अब दलितों की श्रेणी में आ चुके थे। किसी को ये याद नहीं रहा कि वे लोग ऊँचे कायस्थों में से थे।
श्रावण मास के दूसरे सप्ताह में माम्पी का विवाह बिहाड़ा गाँव के दूर धोलछड़ा गाँव के एक पान के व्यवसायी के यहाँ तय हो गया। माम्पी ने भी अपने भाग्य के फेर को स्वीकार कर लिया और विवाह की तैयारी होने लगी। हरि ने वर पक्ष से थोड़ा सा समय मांग लिया था। होने वाला दूल्हा माम्पी से उम्र में 12 साल बड़ा था। लेकिन देखने-सुनने में अच्छा था। उसके घर में विधवा माँ के सिवा कोई नहीं था।
हरि ने दुबारा बाढ़ कम होने पर सिलचर जाकर कुछ दिन और मज़दूरी की और कुछ और रुपए उसने जोड़ लिए। सिलचर से आते वक्त उसने कुछ साड़ियाँ तथा बहन को देने के लिए एक छोटा सा सोने का गहना ले लिया था। बाकी उसके दोस्त राजेश की पत्नी ने शहर से कुछ सिटि गोल्ड के आभूषण खरीद दिये थे। ठीक अग्रायण महिने की दूसरे सप्ताह के तीसरे दिन माम्पी का विवाह हो गया। वर पक्ष से केवल 20 लोग ही बरात में आए थे। विवाह बिहाड़ा के दामोदर आश्रम में अच्छे से निपट गया।
बहन के विवाह के बाद हरि पूरी तरह से चिंता मुक्त हो गया। वह दुबारा सिलचर गया और काम की तलाश करने लगा। उसे राजेश की मदद से असम विश्वविद्यालय के लिए बन रही सड़क के लिए काम मिल गया। उसे पत्थर तोड़ने का काम मिला। वहाँ उसके साथ कई दूसरे मज़दूर भी काम कर रहे थे जिनमें स्त्रियाँ भी थी। श्यामली उन्हीं में से एक थी। श्यामली के माँ-बाप नहीं थे। अपनी नानी के घर ही पलकर बड़ी हुई थी। उसके चाचा कभी-कभी उससे मिलने बॉर्जालेंगा आते थे। श्यामली के चाचा उसे हमेशा से ही अपने साथ घर ले जाना चाहते थे। वजह यह नहीं थी कि वह उसे बेटी की तरह चाहते थे। मगर चाची को एक घरेलु नौकरानी की जरूरत थी और श्यामली मुफ्त में ही मिल रही थी। लेकिन श्यामली की नानी और मौसा-मौसी न तो उसे वहाँ भेजने के लिए राज़ी हुए बल्कि उसके चाचा के साथ झगड़ा करके कई बार वापस भी लौटा चुके थे।
श्यामली की मौसी सिलचर में रहा करती थी और अंबिकापट्टी में लोगों के घरों में बर्तन मांझने का काम करती थी। यह जगह सम्पन्न लोगों से भरी था इसीलिए अच्छी कमाई हो जाती थी। श्यामली कभी-कभी वहाँ आती तो मौसी उसे भी इसी काम में लगा देने की बात करती थी। हरि के साथ जब सड़क के काम के दौरान मुलाकात हुई तो सहज ही दोनों के मन में भावनाएँ जगी। राजेश की मदद से उसने श्यामली के मौसा-मौसी से बात की और शादी तय हो गयी। हरिहर ने श्यामली से शादी कर ली और श्यामली को अपनी माँ के पास छोड़ वापस सिलचर आकर काम करने लगा। कुछ दिन बाद वह अपनी माँ से खबर पाकर वापस विहाड़ा गया।
माँ – बेटा श्यामली तो बहुत जल्दी ही खबर दे रही है। तूने कुछ सोचा है क्या? अब ये रोज़-रोज़ की मजदूरी का काम छोड़ और कोई सही काम पकड़ ले। देख वैसे भी बिहाड़ा बजार में छोटी सी सब्जियों की दुकान खोल लेने में कोई बुराई नहीं है। तेरा अब यहाँ साथ में रहना बहुत जरूरी है।
हरि – माँ सब्जियों की दुकान खोल भी लू, लेकिन सब्जियाँ कहाँ से लाऊँगा? बाज़ार में किसी कोने में दुकान खोलने के लिए मुझे पंचायत से भी तो इजाजत लेनी पड़ेगी।
माँ – इसकी चिंता मत कर। मैंने प्रणब मास्टर जी से बात कर ली है। उन्होंने कहा है कि दुकान न मिले तो तू कांधे पर या ठेले पर भी सब्जियाँ लेकर बेच सकता है। सब्जियों के लिए चिंता मत कर। देख जब तू यहाँ नहीं था तो मैंने घर के पीछे वाली जगह पर काफी सारी सब्जियाँ लगा दी हैंं। वह उत्तर बाड़ी की मास्टरनी है न उनके वहाँ खाना बनाती थी। उन्होंने ही मुझे यह सिखाया है। देख जाकर पीछे!
हरि – हाँ देख चुका हूँ। लेकिन इतनी सी सब्जियों से क्या होगा?
माँ – देख माना की सब्जियाँ कम है। लेकिन पूरी तरह से शुद्ध है। आजकल लोग बोलते है कि सब्जियों में कितनी मिलावट होती है। तू ये सब्जियाँ टीला बाड़ी के कुछ घरों में बेच आ। नहीं तो प्रणब मास्टर के घर ही बेच दे।
हरिहर माँ की बातों का विचार करके चला जाता है। श्यामली का विचार करके हरिहर को ये बातें ठीक लगी। उसने अगले ही दिन घर से कुछ सब्जियाँ ले जाकर टीला बाड़ी के घरों में बेचने की कोशिश की। लेकिन उस दिन उसका सौदा नहीं बिका। सबको सब्जियों के दाम ज्यादा लगे। वैसे भी लोगों को हर अच्छी चीज़े कम-से-कम दाम में ही खरीदने की इच्छा होती है। लेकिन हरिहर ने हार नहीं मानी। उसने और दो-चार बार और कोशिश की। हाथी मारा, नन्चुरी, श्रीनगर, काली नगर, ठाकुर बस्ती, चोईआरन पाड़ा में वह अक्सर फेरी लगाने लगा। धीरे-धीरे उसकी फेरी जमने लगी। सौदा हर दिन उतने भले ही अच्छे न होते हो, मगर हरिहर की हिम्मत बढ़ने लगी। उसने अपने घर के पीछे जितनी भी जमीन बची थी, उसमें लाई-मूला लगाना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे सब्जियों के व्यापार जमा तो उसने अपने घर की मरम्मत करवा ली।
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अब हरिहर के दिन फिर से फिरने लगे। श्यामली से उसे एक बेटा तथा तीन बेटियाँ हुई। हरिहर को उनकी शिक्षा-दीक्षा की चिन्ता होने लगी। उसके लिए उसने अब घर के बाहर की सब्जियों की एक बड़ी दुकान बना ली थी। दुकान बाँस और खपच्चियों की बनी थी। लेकिन उसकी बिक्री काफी बढ़ गयी थी।
एक दिन हरिहर ने जाकर प्रणब मास्टर जी से अपने बच्चों की शिक्षा के लिए बात की। प्रणब मास्टर जी ने उसे बिहाड़ा हायर सेकेन्डरी स्कूल में सबकी भर्ती करवाने की बात कही। वह स्वयं वहाँ काम करते थे। हरिहर ने अपने बेटे श्रीधर, बेटी श्यामाश्री का दाखिला करवा दिया। बाकी दोनों बच्ची तीन और दो साल की थी। बंगला भाषा में उनकी शिक्षा शुरू हुई।
हरिहर अब बहुत ही निश्चिन्त हो चुका था। उसकी अब थोड़ी उम्र भी हो चली थी। आधी जवानी उसने मज़दूरी करके ही बिता दी थी। काफी उम्र में उसने शादी की थी। वही उसके घर के पीछे के कमरे में वह बांस की खूंटी अभी भी खड़ी थी। हरिहर को बचपन की बातें याद तो आती थी। एहसास नहीं हुआ था कि उस खूंटी में उसने बचपन में कितने पैसे जमा थे। हरिहर अपने बच्चों को भी कभी-कभार थोड़े पैसे दिया करता था ताकी वे स्कूल में टिफन खा सकेंं। लेकिन स्कूल में अक्सर बच्चों की किसी-न-किसी से मारा-मारी होती थी या फिर होते हुए दिख जाते थे। इसी डर के मारे की कहींं कोई उनके पैसे न छीन ले वे अपने उन पैसों को घर के किसी कोने में छिपाकर रखने लगे। बच्चों के अपने छुपाए हुए पैसों की जगह अच्छी तरह मालूम थी। वे प्रायः गिनकर रखते थे कितने जमा हुए है।
धीरे-धीरे हरि के सभी बच्चे बिहाड़ा हाई स्कूल में पढ़ने लगे। सभी अब बड़े हो रहे थे। हरिहर अब अपने बच्चों को देखता तो गर्व से फूले न समाता। एक दिन था कि जब उसने मज़दूरी का काम करना शुरू किया था। बड़ी बहन के भाग कर शादी करने की वजह से बदनामी का भार झेलना पड़ा था। लेकिन उसके दिन फिरते ही उसने सब कुछ भुला दिया था। अब दोनों बहने कभी-कभी अपने पति या बच्चों को लेकर हरिहर के यहाँ नैहर करने आ जाती थींं।
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लेकिन विधाता को हरिहर के परिवार के सम्पन्न दिनों से शायद कुछ अपना ही हिसाब था। हरिहर को भी उसी रोग ने घेरा जो कि उसके बाप-दादा को चुका था। इस बार हरिहर की माँ ने ठान ली थी कि किसी भी तरह से वह दुबारा अपने घर को बर्बाद नहीं होने देगी।
हरिहर का इलाज शुरु हुआ। लेकिन घर की जमा पूंजी धीरे-धीरे खत्म होने लगी। हरिहर की स्थिति वापस वही आकर रुकी जहाँ से उसने शुरु की थी। लेकिन एहतियात की बात यह थी कि श्रीधर अब काफी बड़ा हो चुका था। किसी तरह से उसने अपनी प्रतिभा के बल पर सरकारी कॉलेज में बी.ए. का प्रथम वर्ष पूरा कर लिया था। श्यामाश्री भी बड़ी हो चुकी थी। दोनों ने पिता की अवस्था देखकर बिहाड़ा गाँव के बच्चों को ट्यूशन देना शुरू कर दिया। बच्चे बहुत ही कम थे, ज्यादातर छोटी कक्षा के बच्चे थे। इसलिए बहुत ज्यादा फीस नहीं थी। पर जितना भी मिलता था उससे घर के खर्चे निकल जाते थे। खाने के लिए ज्यादातर उबली हुई दाल के साथ नमक, मिर्च और सरसों का तेल मिलाकर भात खाकर ही अब दिन गुज़रने लगे थे।
हरिहर की तबियत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। श्यामली को अब भय लगने लगा था। घर की परिस्थिति भी ऐसी नहीं थी कि हरिहर को इलाज के लिए सिलचर ले जाया जा सके। खाने-पीने के लिए चाहे जितना भी भोजन मिल जाए लेकिन दवाईयों की जरूरत भी थी। हरिहर गाँव के एक होमियोपेथिक डाक्टर से इलाज करवा रहा था। लेकिन उसका रोग ठीक होने के बजाए और बिगड़ता जा रहा था।
एक दिन श्यामली ने निश्चय किया कि हरिहर को वह सिलचर लेकर जाएगी और उसका इलाज करवाएगी। चाहे कुछ भी हो जाए। उसने अपने बेटे को बुला कर कहा कि वह सिलचर अपने राजेश काकु को फोन करके हरिहर के बारे में सबकुछ बता दे। उन दिनों बराक घाटी में मोबाइल फोन की सुविधा केवल कुछ लोगों तक अभी पहुँची ही थी। राजेश के पास भी कोई टेलीफोन नहीं था। लेकिन उसके घर के पास के एक भूशिमाल के दुकान में टेलिफोन था। राजेश की उस दुकानदार से बनती थी। इसीलिए उसने अपने जान-पहचान के लोगों को वहींं का नम्बर दे रखा था। बिहाड़ा बाज़ार आकर श्रीधर ने राजेश काकु को फोन लगाया। लगभग आधे घण्टे इंतजार के बाद दुबारा उसने फोन लगाया और राजेश से बातें हुई। हरिहर की सिविल हॉस्पिटल में इलाज की बात तय हुई। उन दिनों सिविल अस्पताल ही ऐसा था जहाँ गरीबों का इलाज सस्ते में हो सकता था। फिर सिलचर के कुछ सफल डॉक्टर बाबू भी वहाँ कभी-कभार दर्शन दे जाते थे। अधिकतर के अपने चेम्बर हुआ करते थे। जहाँ की फीस गरीबों के नसीब में नहीं थी।
हरिहर को तो सिलचर ले आने में कोई कठिनाई नहीं थी। लेकिन जितने दिन हरिहर और श्यामली सिलचर रहेंगे उनके खर्चे का अनुमान श्यामली को डरा देता था। हालांंकि रहने-खाने की दृष्टि से इतना महंगा नहीं है। फिर भी दवाई तथा पथ्य के साथ-साथ कही-न-कही तो सर ढकने की भी जरूरत थी। घर में सभी को जितनी जल्दी आशा बंधी उतनी ही जल्दी निराशा ने भी फिर से ग्रस लिया।
किसी तरह से श्यामली ने हरिहर को मना कर उसकी दुकान एक महाजन के पास गिरवी रखवा कर कुछ पैसे लिये। महाजन ने देखा की शिकार नया है और सीधा भी। इसलिए सब्जी की दुकान का मनचाहा दाम लगाकर उसे सूद पर पैसे दे दिए। तय दिन पर हरिहर और श्यामली राजेश के घर सिलचर जा पहुँचे। अगले दिन ही राजेश हरिहर को लेकर सिविल हॉस्पिटल गया। वहाँ क्षय रोग की पुष्टि हो गयी। इलाज शुरू हुआ।
वैसे तो राजेश को शहर में मौसम-बेमौसम काम मिल ही जाता था। मगर उसकी खुद की हालत ऐसी नहीं थी कि वह दो लोगों का अतिरिक्त भार उठा सके। उस पर से रोगी। लेकिन राजेश ने हरिहर का साथ हर बार दिया था। हरिहर भी उसकी खुशी में कई बार शामिल हुआ है। राजेश की बीवी को कई सालों से बच्चा नहीं हुआ था। 12 साल के इंतजार के बाद जब राजेश के घर पहली खुशी आयी तो हरिहर ही था जिसने उसके घर फलों तथा सब्जियों की टोकरियाँ पहुँचायी थी। आज राजेश के पास फिर से वे लोग सहारा मांगने आये हैं तो राजेश कैसे मना कर देता।
एक दिन की बात है राजेश हरिहर को अस्पताल में खाना देने के बाद घर लौट ही रहा था कि रास्ते में ही उसकी पत्नी शम्पा दिख पड़ी। वह घर के पास ही के दुकान गयी हुई थी। वहाँ से वह कुछ अण्डे और प्याज लेने आयी थी। वह दुकानदार से दोनों चीजेंं उधार देने की याचना करती दिखायी दी। राजेश वहींं दुकान पर आ गया।
“शम्पा तुम यहाँ? क्या बात है?”
“अजी सुनो! तुमसे कुछ बात करनी है।” इतना कहकर वह अण्डे और प्याज दुकान से लेने लगी। वह दुकानदार से खाते में लिख देने को कहने लगी। यह दुकान वैसे भी उन्हें नियमित रूप से उधारी में सामान दे देता था। उसके पास ऐसे कई ग्राहक थे जो उधार ले लिया करते थे। सबके अलग-अलग खाते थे। दुकानदार ने शम्पा को बताया कि उसका पिछले महीने का बकाया 300 रुपये अभी चुकता नहीं हुआ है। इस महीने और चढ़ गया है। राजेश दुकानदार से वायदा करता है कि वह किसी तरह से सब कुछ चुकता कर देगा। फिर दोनों घर की ओर जाने लगे। शम्पा राजेश से कहने लगी – सुनो जी! हरि दा के इलाज के लिए तो पैसे श्यामली अपने साथ ले आयी है। लेकिन उनके रोज-रोज का पथ्य जुटाना बड़ा मुश्किल हो रहा है। सिर्फ और तीन दिन के चावल ही बचे हैं। यदि तुम किसी तरह से चावल का जुगाड़ कर सको तो....।
राजेश ये बात सुनकर चिंतित हो गया। दोनों जब घर पहुँचे तो उन्हें श्यामली घर की चौखट में इन्तज़ार करती नज़र आयी। पिछले एक हफ्ते से वह हरि के पास हॉस्पिटल में ही थी। लेकिन मरीज़ों के अलावा वहाँ उनके साथ आए रिश्तेदारों के लिए कोई मुकम्मल इन्तज़ाम नहीं था। लिहाज़ा श्यामली को ज़मीन पर ही गद्दा डाल कर सोना पड़ता था। सफाई वाले कई बार जब साफ-सफाई के लिए आते तो उन्हें मरीज़ों के रिश्तेदारों को जगाना पड़ता और उन्हें वहाँ से हटना पड़ता। एक आध बार श्यामली पर एक आया भड़क भी गयी थी। राजेश सिविल हॉस्पिटल के इन कर्मचारियों के दुर्व्यवहार से अच्छी तरह परिचित था। उसने श्यामली को समझा-बुझा कर घर पर ही रहने की सलाह दी थी।
श्यामली को देखकर ही दोनों ठिठक गये। दोनों ने आगे कोई बात नहीं की। श्यामली राजेश को देखते ही पूछ बैठती है – दादा! खाना दे आये? कैसे हैं वह? ठीक से खा भी रहे हैं या नहीं। उनकी दवाई वगैरा सब है न? कुछ जरूरत हो तो ...
“नहीं नहीं भाभी! सब ठीक है। बस कुछ ही दिनों में हरिहर घर वापस आयेगा। डॉक्टर साहब कह रहे हैं कि अब वहाँ रहने की जरूरत नहीं है।” श्यामली राजेश की बात से थोड़ी सी चिंतित हुई। हरिहर की हालत क्या सच में इतनी सुधरी है कि उसे अब घर में रखकर इलाज सम्भव हो सकता है, वह बार-बार इन्हीं खयालों में खोयी हुई थी। हरिहर को डॉक्टर की सलाह के मुताबिक रोज नियमित दवाईयों के साथ अण्डे और दुध की जरूरत थी। अस्पताल में क्षय रोग के और चार मरीज़ थे। प्रतिदिन इन मरीज़ों को दवाईयों के साथ-साथ पेट भर खाना भी दिया जाता था। तीनों वक्त अच्छा खाना ही इनकी जान बचा सकने के लिए जरूरी था। श्यामली को चिन्ता थी तो इस बात की कि अभी इलाज हुए दो हफ्ते हुए हैं। हरिहर को और न जाने कितने दिन लगेंगे ठीक होने में। वहींं राजेश अपनी जान-पहचान की एक दुकान से डॉक्टर की पर्ची दिखाकर दवाई ले लेता था, जिसका काफी उधार था। वह एक दूध वाले से भी रोज के सेरभर दूध भी लेता था। जो थोड़े पैसे उसने बचा रखे थे उससे उसने दवाई और दूध का कुछ रुपया चुकता कर दिया तो था लेकिन ज्यादातर उधार ही था। राजेश जानता था कि जितना वह उधार ले रहा है उसे चुकाने में भी उतनी ही कठिनाई होगी। वह जहाँ काम पर जाता था वहाँ के कॉन्ट्रेक्टर बाबू से उसने दो और जगह काम दिलवा देने को कहा। कॉन्ट्रेक्टर बाबू ने भी उसे काम दिलवा देने का वायदा किया था।
इधर घर की हालत ऐसी थी कि राजेश और शम्पा दोनों किसी तरह से उबले आलू और दाल से ही काम चला लेते। एक दिन उनकी लड़की ने मछली खाने की जिद की। शम्पा ने बेटी को समझाया कि इतने पैसे घर में नहीं है कि मछली लायी जा सके। तो लड़की ने बिना सोचे-समझे ही बक-बक करना शुरू कर दिया। उस बेचारी को नहीं पता था कि अचानक ऐसा क्या हो गया है कि अब घर में जो भी अच्छा खाने को बनता है वह सब घर से बाहर चला जाता है और बाकी घरवाले केवल मामूली दाल-सब्जी या उबला हुआ आलू और भात से ही गुज़ारा करते हैं। लड़की की बक-बक सुनकर श्यामली रसोई घर की तरफ आयी। लेकिन शम्पा किसी तरह से लड़की को डांट-डपट लगाकर समझा-बुझा कर खाना खिलाने लगी। राजेश और शम्पा दोनों को परेशान देख श्यामली उनसे पूछने लगी कि क्या हुआ? लेकिन दोनों ने जवाब नहीं दिया। अंत में शम्पा कहा है कि लड़की को उसके स्कूल में कुछ बच्चे सताते हैं और वह न पढ़ने की जिद किए बैठी है। श्यामली जवाब सुनकर अनमनी होकर चली गयी।
हरिहर की हालत में अब काफी सुधार आने लग गया था। वह अस्पताल से घर वापस आ गया था। डॉक्टर ने उसे कुछ दिन और सिलचर रहने की सलाह दी थी। क्योंकि अभी उसके और दो हफ्ते का इलाज बाकी था। क्षय रोग में इलाज काफी लम्बा चलता है। हरि को अपने दोस्त राजेश की हालत का अंदाज़ा था। पर वह इतना नहीं जानता था कि राजेश के घर खुद के खाने के लिए पर्याप्त भोजन नहीं है। लेकिन एक दोस्त होने के नाते राजेश ने जितना कुछ किया है जब हरिहर को पता चलेगा तो वह कैसे ऋण चुकाएगा। डॉक्टर ने उसे रोज तीनों वक्त पेट भर खाने को कहा था। लेकिन भर पेट भोजन तो तब हो जब रोज़गार सही हो। लेकिन हरिहर को ठीक होना था। क्योंकि उसे अपने रोज़गार पर वापस भी लौटना था। घर की याद उसे सता रही थी।
हरिहर को ठीक होने में लगभग तीन महिने का समय लग गया था। अब हरिहर बिहाड़ा वापस लौट सकता था। डॉक्टर ने पर्ची में दवाईयों के नुस्खे तथा नियम सब कुछ लिख दिये। लेकिन सबसे बड़ी समस्या तो अब बाकी थी। हरिहर ने अपने गिरवी रखी दुकान के पैसों से अस्पताल का खर्चा चुका दिया था। लेकिन दवाई तथा पथ्य का हिसाब तो अभी बाकी था। जिस रोज हरि आखरी बार डॉक्टर को दिखाने गया उसके ठीक हफ्ते भर बाद उसे बिहाड़ा वापस लौटना था। उसने दवाई की पर्ची दिखाकर जब दुकान से दवाई लेने गया तब उसे पता चला कि अब तक उसके दवाईयों के डेढ़ हज़ार रुपये बाकी है। फार्मेसी वाले ने दवाई देने से साफ इन्कार कर दिया और कहा कि पहले का चुकता करो। वहींं दूध वाला राजेश से तकाज़ा करने लगा। राजेश ने आधे पैसे ही दिये थे। क्योंकि अभी गली के दुकान का भी पैसा बकाया था। वहाँ भी देने थे।
हरिहर अपने दोस्त के किये से काफी खुश भी था। मगर दिल में एक बोझ सा बन गया था कि अब वह राजेश का ऋण कैसे चुकाएगा। जब वह घर पहुँचा तो उसने देखा कि राजेश और दूध वाला आपस में बहस कर रहे थे। दूध वाला – “देखो दादा! मैं तो दूध खरीद कर ही लाता हूँ। तुम भले ही मुझे मेरे लाभ के पैसे न दो लेकिन दूध की खरीदी के पैसे ही दे दो। आखिर मेरे भी बाल बच्चे हैं। कुछ तो दे ही दो।” राजेश –“भाई देखों अभी तो इतने नहीं दे पाउँगा। तुम अभी ये ही ले लो। बाकी का मैं धीरे-धीरे चुकता कर दूंगा।” दूध वाला –“दादा अभी तो इतने लिए जाता हूँ। लेकिन यदि ऐसा ही चलता रहा तो फिर मुझे यहाँ दूध देना बन्द करना होगा। समझता हूँ कि घर में मरीज़ है, उसके लिए तुम्हें दूध चाहिए। लेकिन जब तुम्हारी हालत इतनी नहीं थी तो फिर देसी गाय का दूध लेने के बजाए बड़ी गाय का दूध लेते। उसका तो सस्ता ही आता है। आखिर वह भी तो दूध ही है।” राजेश—“देखो भाई, तुम मुझे न समझाओ कि क्या करना है। मैं अभी जितने दे रहा हूँ ले लो। बाकी का दो-चार दिन में दे दूंगा।” हरि अपने दोस्त को देखकर गद-गद हो जाता है कि कैसे उसने अपनी हालत का पता नहीं लगने दिया और हरि की मदद करता रहा। यही हाल भूशिमाल के दुकान पर भी था। सबसे बुरा हाल उस महाजन का था जो कि हर महीने हरि के परिवार वालों को पैसों का तकाज़ा करने आ जाता था। हरि अब तक सिलचर में ही था।
अंत में हरिहर ने राजेश की मदद का बदला मदद करके करने की ही सोची। हालांकि उसकी हालत ऐसी नहीं थी कि वह काम पर जा सके। लेकिन उसने लेन-दारों से वायदा कर दिया कि वह काम पर लग कर सारे पैसे चुका कर ही जाएगा। जिस पर राजेश ने उसे समझाया कि डॉक्टर ने उसे और कुछ महीने आराम करने को कहा है। हरिहर के लिए राजेश की बात मानने के सिवा कोई चारा न था। बेचारा करता भी क्या। वह विवश होकर बिहाड़ा लौट गया। उसने अपनी माँ से सारी बातेंं कहीं। कुछ दिनों परेशान रहने के बाद एकाएक एक दिन हरि की माँ को याद आया कि घर के पीछे के कमरे की खूंटी में हरिहर के जमा कुछ पैसे है। उसने बहू श्यामली को बुलाकर कहा- “बहू, शायद हमें इस खूंटी को काटने का वक्त आ गया है।” श्यामली को कुछ समझ में नहीं आया। लेकिन तब तक हरि की माँ ने श्रीधर को बुला लिया। फिर श्रीधर से कहकर वह उस खूंटी को कटवाया। ज़र्र से बहुत सारे सिक्के ज़मीन पर बिखर कर गिरने लगे। सभी उसे देख चौक गये। उन सिक्कों को इकट्ठा करने के बाद सबको आश्चर्य हुआ कि उसमें लगभग तीन हज़ार नकदी जमा थी। उधर पिता के जल्दी स्वस्थ होने की आशा में बच्चों ने इतने महीनों तक सबर किया था। लेकिन जब ये चमत्कार देखा तो उनसे भी रहा न गया और उन्होंने भी अपनी-अपनी थोड़ी-थोड़ी जमा पूंजी ला कर वहाँ रख दी। ऐसा करने की उन्हें कहाँ से प्रेरणा मिली पता नहीं। मगर जितने रुपये जमा हुए उसमें से हरिहर ने राजेश को भेजने का फैसला कर लिया। अगले ही दिन श्रीधर के हाथों हरिहर तीन हज़ार रुपये देकर सिलचर भिजवाये।
जब श्रीधर सिलचर जाकर राजेश के घर पहुँचा तो उसे मकान के बाहर से ही कुछ ज़ोर-ज़ोर से आवाज़े सुनाई दीं। भूशिमाल के दुकान का मालिक राजेश से कह रहा था कि “नहीं,नहीं, इतने दिनों से तुम उधार का माल लेकर जा रहे हो। रोज कहते हो कि तुम पैसा चुका दोगे। ये आखिर कब तक चलेगा। मैं आज अपने पैसे वसूल करके ही जाऊँगा। नहीं तो देख लेना मैं क्या कर सकता हूँ।” इतने में राजेश श्रीधर को देख लेता है और भूशिमाल के मालिक को वापस लौट जाने की विनती करता है। “देखो मेरा भतीजा आया है। तुम अभी जाओ, मैं थोड़े देर में ही तुम्हारी दुकान आ रहा हूँ।”
“आओ आओ! बेटा”
“पिताजी ने ये रुपये भिजवाएँ हैं आपके लिए।”
“इतने सारे रुपए कहाँ से मिले?”
“जी घर के पीछे एक खूंटी थी, उसे काटकर उसमें से निकाले।”
“इतने सारे!! मगर मैं ये कैसे ले सकता हूँ बेटा।”
“काकु मैंने सब कुछ सुन लिया है। आपने मेरे पिताजी के लिए इतनी तकलीफ उठायी है।” ऐसा कहते-कहते श्रीधर का गला भर आया उसने राजेश के पैर छू लिये। राजेश ने भी श्रीधर की श्रद्धा देख उसे गले लगा लिया।
“देखो बेटा जब इतने रुपये मिले हैंं तो तुम्हारे पिता को अपने इलाज के लिए रख लेने चाहिए थे।”
“काकु, यदि आप ये पैसे नहीं लेंगे तो फिर मैं समझूँगा कि आप हमें अपना नहीं मानते। पिताजी को भी बहुत दुख होगा। आप ये पैसे रखिए। आपको इसकी सच में बहुत जरूरत है। हमें भी खुशी होगी। मुसीबत में एक-दूसरे के काम आना अपनो का ही तो धर्म है।”
“बेटा तुमने आज मेरी लाज रख ली। मैं ये रुपये अभी दुकान में दे आता हूँ।”
“काकु आपने मेरे पिताजी के लिए जितना किया है, यदि पिताजी का अपना भाई भी होता तो वह भी शायद उतना न कर पाता। आप मेरे लिए मेरे सगे काकु से भी बढ़कर हो।”
“बेटे तुम भी मेरे सगे भतीजे ही तो हो, वरना आजकल तो लोग मित्र को केवल इस्तेमाल करते हैं। तुम्हारे पिताजी ने ये पैसे भिजवाकर मुझे बहुत बड़ी बिपत्ती और लाज से बचा लिया है।”
शम्पा रसोई घर के दरवाज़े की आड़ से सबकुछ देख-सुन रही थी। उसकी आँखों से आँसू झलक पड़े। वह तुरंत बाहर आयी और श्रीधर को बड़े प्यार से पकड़कर रसोई घर के भीतर ले गयी और पकौड़े खिलाने लगी।
परिचय-(मूल लेखिका)
श्रीमती अनीता चक्रवर्ती
माता का नाम – स्व. मालोती चक्रवर्ती
पिता का नाम – स्व. उपेन्द्र कुमार चक्रवर्ती
पति का नाम – श्री अनिल कुमार चक्रवर्ती
जन्म- 1 दिसम्बर 1955
जन्म स्थान – श्रीगौरी ग्राम, जिला कछार, असम
गृह क्षेत्र – असम
भाषा – बांग्ला, हिन्दी, अंग्रेजी
शिक्षा – बी.ए
विधाएँ-- कहानी, कविता
विशेष – शूची शिल्पकार(काथा सिलाई शिल्पकार)
परिचय-(अनुवादक)
जन्म-23 अप्रैल 1983
जन्मस्थान– मणिपुर इम्फाल
शिक्षा– एम. ए (हिन्दी), पी.एच.डी
कहानी- बुलबुला, फैसला(समनव्य पूर्वोत्तर पत्रिका में प्रकाशित), मासूम(साहित्य सुधा वेब पत्रिका में प्रकाशित) दावानल(विश्व हिन्दी साहित्य मॉरिशस में प्रकाशनाधीन)
कविता- बचपन से आजतक, एक दिन, भूख, रिश्तें,ऐसा क्यों होता है?, मेरे बाग के फूल, रंग जिन्दगी के, सवाल नज़रों का, हज़ारों ख्वाहिशें दिल में, न मजबूर करों किसी को, चाह कर भी, तेरे साथ -(अनुभूति, मुक्त कथन, तथा वैश्य-वसुधा तथा प्रतिध्वनि पत्रिका में प्रकाशित) विशाल गगन, हौसल( साहित्य सुधा वेब पत्रिका में प्रकाशित),
आलोचना- उपन्यासकार निराला--एक अध्ययन(पुस्तक)
33 शोधालेख विभिन्न शोध पत्रिकाओं तथा पुस्तकों में प्रकाशित।
उद्देश्य- हिंदी को लोकप्रिय राष्ट्रभाषा बनाना।
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