बिस्तुइया
कृष्ण देव तिवारी "कृष्णा" वडोदरा (गुजरात) भारत
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शायद इसी को कहते हैं प्यार
मरने के बाद भी
खुली आँखे !
कर रहीं थी इंतजार ।
याद आता है उसका मचलना तड़पना
उसके जद्दोजहद का खुमार ।
वह उसको सताता था
रूलाता था
रूठ जाने पर मनाता था
करता था अपनी प्रेयसी का ख़याल ।
दोनो खुश थे
दीवारों पर मचलते
करते थे अठखेलिया ।
कुछ दिनों से
मै देखता हूँ
वह !
थी उदास !
हम सोचते थे यह है बीमार ।
पर हमको पता क्या ?
वह निपट निर्दय नायक
किसी और का हो गया सहायक ।
ना वह रोती थी ना चिल्लाती थी
अपने अश्को को छुपाती थी
लोक लाज के डर से
अपनी अस्मिता को बचाती थी ।
भेद हमको भी समझ न आया
वे एक दूसरे के थे शाया
पर उस दिन मानवता हो गई मर्माहत
देख उसके बलिदान की चाहत ।
ना शिकवा !
ना गिला किया !
उसके इंतजार में
खुद को मिटा दिया ।
हम सोचते रहे यह आराम कर रही
वह तो !
चिरशाश्वत का वरण कर रही ।
मेरे रसोई के दीवार पर
दोनो पैर फैलाये
गर्दन को उल्टा झुकाये
शोक सागर में नहाये
ले ली थी अचल समाधि ।
वह
हो गई थी निष्प्राण
करके प्राणायाम !
बिना विष खाये
दिल में तड़प जगाये
शायद वह लौटकर आये ।
इसी हकीक़त में
उसकी खुली रहीं आँखे
एक सिद्ध योगी सी
कवि कहते अपनी जुबानी
उस पवित्र प्रेमिका
बीस्तुइया की प्रेम कहानी ॥
कवि परिचय-
कृष्ण देव तिवारी "कृष्णा"
कार्य क्षेत्र -असिस्टेंट प्रोफ़ेसर (नेट .जे आर एफ़ )
महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय वडोदरा, गुजरात ।
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