कबीर का क्या अर्थ है!
डॉ आलोक कुमार सिंह, बोमडिला (अरुणाचल प्रदेश) भारत
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कबीर का क्या अर्थ है! जो बिना भय के सच्ची सच्ची बात कह दे, वहीं कबीर है। इसलिए कबीर को 'अनभै साचा' भी कहा जाता है। कबीर ने जात धर्म से ऊपर उठकर समाज को एक सूत्र में पिरोने का काम किया,तथा समाज को एकता के सूत्र में बाँधकर एक प्रगतिशील मानवमूल्य की स्थापना की। कवि का अर्थ अक्सर लोग रंजन करने वाला, मनोरंजन करने वाला, भाट आदि लगा लेते हैं। पहले कवि को स्वयंभू बोला जाता था, महाभारत और रामायण लिखने वाले को महर्षि बोला गया। कवि कहने का प्रचलन कालीदास से शुरू होता है, जो आज तक चलता रहा। कबीर कविता नहीं करते, बल्कि अपने विचार को कविता के रूप में समाज के सामने प्रस्तुत करते हैं- "जो तुम जानो गीत है, यह निज ब्रह्म विचार।"
कबीर सच्चाई को जीवन की सबसे बड़ी तपस्या और झूठ को सबसे बड़ा पाप मानते हैं। इस सच्चाई के लिए आचरण की शुद्धता पर बल देते हैं। इस सच्चाई और आचरण की शुद्धता के बल पर ही कबीर एक सौ पंद्रह साल तक जीवित रहते हैं। अगर ये मान लिया जाय कि कबीर को पंद्रह साल की उम्र में आत्मज्ञान प्राप्त हो गया, तो कबीर इस दुनिया को एक सौ साल उपदेश देते रहे। इसका मतलब कबीर हमारी छह पीढ़ियों को देखे थे, देखे ही नहीं बल्कि छह पीढ़ियों का अपनी नंगी आंखों से एक्सरे भी किया था। कबीर की ख्याति उनके जीवनकाल में ही अफगानिस्तान से लेकर नेपाल, गुजरात, राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश, बंगाल, बिहार, उड़ीसा, आसाम तक फैल गई थी। व्यवस्था के नागफास ने उन्हें बहुत सताया। कभी हाथी से कुचलवाने का उपक्रम किया गया तो कभी नदी में डुबोने का, पर हर बार वे बच निकले। जब वो कहते हैं कि हम न मरे मरिहे संसारा तो कुछ लोगो को यह उनकी गर्वोक्ति लगती है। यूरोप में आधुनिकता अभी कोपले फोड़ रही थी, कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट की लड़ाई अपने चरमोत्कर्ष थी। तभी कबीर सोए हुए को जगाने का काम कर रहे हैं- सुखिया सब संसार है, खावे और सोवे। दुखिया दास कबीर है जागे और रोवे। यही नहीं वो तो खुले मैदान में ऐलान कर सबकी खैर माँगते हैं। कबीरा खड़ा बाज़ार में मांगे सबकी खैर। ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।
कबीर अनुभूति की सत्यता और अभिव्यक्ति के खरेपन को बहुत महत्त्व देते हैं। उन्होंने अनुभूति द्वारा ये जाना कि हिन्दू और मुस्लिम में कोई भेद नहीं है, दोनों का मूल उत्स एक ही है। पर उनके समय में यह बात किसी हिन्दू ने मानी न मुसलमान ने। आज भी कमोवेश यही स्थिति है। खुद कबीर को जीवनभर हिन्दू और मुस्लिम दो पाटो के बीच में ही पिसना पड़ा - चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।
कबीर के राम न हिन्दू राम हैं न मुसलमान के रहमान। परंपरा से भले वह राम का नाम लेते हैं, पर उनके राम जो सबमें रम रहा है, वहीं है। वह आत्मा की आवाज को ही परमात्मा मानते हैं। आत्मा की आवाज कभी झूठ नहीं बोलती। कबीर के राम न निर्गुण राम है, न निराकार, द्वैताद्वैत विलक्षण, त्रिगुनातीत, अगम अगोचर। वो तो खुद कहते हैं- "साखी, सब्दे गावत भूले आतम खबर न जाना।" वो आत्मतत्व को पहचानने की बात कर रहे हैं। यहीं नहीं उनका ब्रह्म मुस्लिम एकेश्वरवाद से भी मेल नहीं खाता।वो कहते हैं- "मुसलमान का एक खुदाई, कबीर का स्वामी घट रहा समाई।" हिन्दुओं को भी कहते हैं- "आतम छोड़ पाषाण पूजे, तिनका थोथा ज्ञाना।"आज आत्मा को कौन पूजने वाला है? पहले आदमी मरता था आत्मा जीवित रहती थी, आज आत्मा मर रही है, मनुष्य जिंदा रह रहा है। "हिन्दू कहत है राम हमारा मुसलमान रहमाना। आपस में दोऊ लड़े मरतु है मरम कोई नहीं जाना।" इस मर्म को जानने की बात करते हैं, बिना मर्म को जाने आत्म को नहीं जान सकते। इस आत्म को पहचानने के लिए कबीर सच्चे गुरु की सानिध्य में जाने की बात करते हैं, तथा गुरु घंटालों से सावधान रहने की बात करते हैं, नहीं तो गुरु के साथ शिष्य को पापकर्म का भागी बनना पड़ता है और जीवनभर पछताना पड़ता है। "गुरुवा संग शिष्य सब बुडे, अंतकाल पछताना।" वो तो यहाँ तक कहते हैं- "जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध। अंधे अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़न्त।"
आलोचकों का एक वर्ग कबीर के कुछ पदों को नहीं समझ पाने के चलते उन्हें रहस्यवादी कवि करार देते हैं, पर आधुनिक विसंगतियों और विडंबनाओं को देखने पर उनके पद स्पष्ट खुल जाते हैं, जब उलटबांसी शैली में कहते हैं- एक अचंभा देखा रे भाई, ठाड़ा सिंह चरावे गाई। आगे पुत पीछे भई माई, चेला के गुरु लागे पाई। आज भी रक्तपायी वर्ग, जिसके मुंह में रक्त लगा हुआ है, वह निरीह गाय जैसी जनता को नहीं चला रहा है। जो भक्षक है वहीं रक्षक बनने का स्वांग नहीं कर रहा है। कबीर को पता था कि सच्चाई बया करने वालों को संसार मारने दौड़ता है, और झूठी बात पर विश्वास करता है। इसलिए कबीर जड़ व्यवस्था से कहते हैं, कि आप ही महानुभाव सही है। ऊंट को बिलारी ले गई, मुर्गा बिल्ली को खा गया, मछली पेड़ पर चढ़ गयी।
कबीर के मरने के बाद व्यवस्था को पता चला कि कबीर क्या थे। जो समाज कबीर को मनुष्य मानने को तैयार नहीं था, जीते जी कोयले के बराबर भी मोल नहीं रखा वहीं मरने के बाद पूजने लगा और कबीर को पोथी पतरे में खोजने लगा -
मोरा हीरा हेरा गईल कचरे में।
कोई ढूंढे पूरब, कोई ढूंढे पश्चिम।
कोई ढूंढे पानी पथरे में।
मोरा हीरा हेरा गईल कचरे में।
जीवन की निस्सारता को कबीर के एक पद में देखा जा सकता है।
हमका ओढ़ावे चदरिया, चलती के बेरिया।
प्राण रान जब निकसनी लागे, उलट गई दोनों नैन पुतरिया।
भीतर से जब बाहर लायो, छूट गई सब महल अटरिया।
चार जना मिली खाट उठइंहे, ले चल डुगुर डगरिया।
कहत कबीर सुनो भाई साधो संग चली वह सुखी लकरिया।
कबीर के लोकतंत्र में सबको समान अधिकार प्राप्त है। वहाँ न कोई छोटा है न कोई बड़ा -
साईं के सब जीव हैं। उनके लोकतंत्र में रूढ़ियों और बाह्य आडंबरों के लिए कोई स्थान नहीं है। परम्परा को तो स्वीकार करते हैं, पर रूढ़ियों के सख्त खिलाफ है। रूढ़ियों का विरोधी होने के चलते ही काशी के बजाय मगहर में मरना ज्यादा श्रेयस्कर समझते हैं। बाह्य आडंबरों के विरोधी होने के कारण ही मुल्ला, मौलवी, और पंडितो की खबर लेते हैं। प्रेम भाईचारे और संतोषवृत्ति को वह ज्यादा महत्त्व देते हैं। पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभूतिजन्य प्रेम को ज्यादा महत्त्व देते हैं- पढ़ पढ़ कर पत्थर भया लिख लिख भया जो ईंट। कहे कबीरा प्रेम की लगे न एको छींट।
ईश्वर से भी उतनी ही माँग करते हैं, जिससे वह भूखे न रहें और कोई भी उनके दरवाजे से भूखा न जाए। साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय। मै भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय। आज के भौतिकवादी लोगों को कबीर के इस दोहे से सीख लेनी चाहिए, जो हमेशा लोभवृत्ति के वशीभूत रहते हैं
परिचय-
डॉ आलोक कुमार सिंह
कार्य क्षेत्र - असिस्टेंट प्रोफेसर ,हिंदी, बोमडिला, वेस्ट केमोंग, अरुणाचल प्रदेश
रुचि- गद्य व पद्य की समस्त प्रचलित विधाओं में सृजन व विविध पत्र पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन
उद्देश्य- हिंदी को लोकप्रिय राष्ट्रभाषा बनाना
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