मारीशस का हिंदी साहित्य : प्रवासी साहित्य या भारतेतर हिंदी साहित्य ?
राज हीरामन, मॉरीशस
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भारत के लगभग सभी कोनों में 'प्रवासी हिंदी साहित्य' पर काम जोर-शोर से हो रहे हैं। नामी विश्वविद्यालयों में एम फिल, पी.एचडी. और डी. लिट. के छात्र इस विषय को लेकर गंभीर शोध में लगे हुए हैं। कई प्रोफेसर प्रवासी हिंदी साहित्य पर शोध लेखों का संकलन, संपादन और प्रकाशन भी कर रहे हैं। कई हिंदी-पत्रिकाएं प्रवासी हिंदी साहित्य पर विशेषांक निकालने में अपना गर्व मान रही हैं और होना भी चाहिए।
ध्यातव्य है कि भारत से बाहर सब से अधिक हिंदी में रचनाएँ अगर कहीं हो रही हैं और उनका प्रकाशन हो रहा है तो वह निश्चित रूप से मारीशस ही है। पर क्योंकि मारीशस में हिंदी संस्कार की भाषा है, हमारे लोगों ने अपनी संस्कृति,सभ्यता और अपना धर्म इसी के माध्यम से बचाए रखा है।
मुद्दे पर आता हूँ, क्या मारीशस का हिंदी साहित्य प्रवासी है? इस तारीख में मैं तो कहूँगा नहीं। ऐसा कहकर मैं मारीशस को भारत से अलग करके नहीं देख रहा हूँ। न ही भारत और मारीशस के बीच का साहित्यिक संबंध में अलगाव ला रहा हूँ। कतई नहीं।
आप पाठकों का ध्यान कुछ घड़ी के लिए मारीशस में भारतीय गिरमिटियों के आगमन की ओर ले जाने की अनुमति चाहूँगा। 1834 और 1920 के बीच मारीशस टापू में 500,000 से कुछ अधिक शर्त बंद भारतीय मजदूर, यहाँ अंग्रेजों द्वारा फ्रेंचों के खेतों में जोतने के लिए लाए जाते रहे थे। वे अपने को भारतीय मानते थे और यह लाज़मी भी था। उनके बाद की पीढ़ी भी अपने को भारतीय या भारतीय संतान मानते थे। वे इंडो-मोरिशन कहलाए क्योंकि मां-बाप भारतीय थे और उनका जन्म मारीशस में हुआ। पर तीसरी पीढ़ी,जिनका मारीशस में जन्मे मां-बाप से इस मुल्क में जन्म हुआ था, वे अपनी पहचान के निर्माण में भारत को ही आगे रखते थे पर अपने को मोरिशन मानने लगे। मेरा जन्म 1953 में हुआ है (चौथी पीढ़ी का हूँ) भारत से अगाध प्रेम रखता हूँ पर अपने को मोरिशन मानता हूँ। मेरे बाद की दो पीढ़ियाँ तो अपनी जड़ें भूल रही हैं और शायद यही उन के सूखने का कारण बनेगा।
प्रवासी भारतीयों को तीन भागों में देखना चाहिए। ऐसा नहीं कि मैं ऐसा मानता हूँ। यह ऐसा ही है : 1. वे भारतीय जो शर्त बंद, कुली, बंधुआ मजदूर, गिरमिटिया बनकर भारत से बाहर गए और जाकर वहीं बस गए।जैसे : मारीशस,दक्षिण अफ्रीका, फिजी, ट्रिनिडा-टोबैगो, ब्रिटिश गयाना, सूरीनाम आदि। वहाँ की हिंदी रचनाएँ भले ही 'मेन स्ट्रीम' में जाने के लिए संघर्षरत है और थोड़ी कमजोर है फिर भी हिंदी की वैश्विकता में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। यह गौरतलब है।
2. वे भारतीय कामगर, जो रोजी-रोटी की तलाश में अरब खाड़ी की ओर गए। वे भारत से आते-जाते रहे पर वहाँ बस नहीं पाए। उधर हिंदी साहित्य की रचना बहुम कम हुई है; पर पूर्णिमा बर्मन जैसे लोग इलेक्ट्रानिक विकास के आशीर्वाद से हिंदी का महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं।
3 . इस में वे भारतीय आ जाते हैं, जो पढ़े-लिखे, वैज्ञानिक, डाॅक्टर, आई टी में निपुण हैं। ये लोग बेहतर जीवन के लिए इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा, जर्मनी और अन्य यूरोपीय देशों के साथ-साथ सिंगापुर तथा आस्ट्रेलिया की ओर उन्नीसवीं सदी तक पलायन करते रहे। ब्रेन-ड्रेन तो हुआ ही पर इन भारतीयों ने बहुत अच्छा किया। नाम कमाया और भारत का भी नाम रोशन किया। वे अच्छे और स्तरीय हिंदी साहित्य की रचना भी कर रहे हैं।
अब चलिए कुछ बातें प्रवासी, प्रवासी साहित्य और प्रवासी रचनाकारों पर की जाएँ। प्रवासी वह है,जो अपना देश छोड़ कर दूसरे देश में जाकर रह रहा है। प्रवासी साहित्य वह है, जो दूसरे देश में बैठे रची जा रही हो। इस बात का ध्यान रखें कि यहाँ हिंदी की बात हो रही है। प्रवासी रचनाकार वह है, जो अपने देश भारत से बाहर किसी दूसरे देश में बैठे हिंदी में लिख रहा हो। प्रश्न यह नहीं उठना चाहिए कि वह उस देश में पराया है या उस देश की नागरिकता अपना चुका है या फिर उनकी रचनाओं में भारतीय संवेदना तरबितर है या फिर यूरोपीय प्रधानता से सराबोर है।
मेरे इस लेख का मूल प्रश्न यह है कि मारीशस में लिखे जा रहे हिंदी साहित्य को प्रवासी साहित्य कहना कहाँ तक उचित या न्याय संगत होगा? मैं चौथी पीढ़ी का हूँ। अभिमन्यु अनत और रामदेव धुरंधर तीसरी पीढ़ी के मारीशस में जन्मे मां-बाप के बेटे हैं। हमारे दादे-परदादे यहाँ आकर बसे थे परन्तु हमारा जन्म तो यहीं हुआ। हम कैसे प्रवासी लेखक हो जाते हैं? हमारा साहित्य कैसे प्रवासी साहित्य हो जाता है? हाँ दिल्ली में बैठे प्रवासी को अपने स्वार्थ के लिए भुनाने वाले हैं, ऐसे लोग जो प्रवासी की खूँटी के हवाले हो चुके हैं। इस वजह से प्रवासी साहित्य की जानकारियां देकर वे शोधार्धिनियों को गुमराह कर रहे हैं। उन्हें भारत के शहरों से छप रहीं हिंदी पत्रिकाओं के लिए, तगड़ा पैसा देकर, अतिथि संपादक के रूप में बुलाया जाता है। उन्हें मारीशस से मोह है और यहाँ से कब से पैसे कमा रहे हैं और वह धुन अब तक गयी नहीं लगती है।
मैं इस वैमनस्यता की चर्चा इस लिए उदाहरण देकर करना चाहता हूँ कि भारत सरकार द्वारा प्रकाशित 'भाषा' हिंदी पत्रिका का विश्व हिंदी सम्मेलन विशेषांक उठाइये। उस में डाॅ के के गोयनका का 'प्रवासी कथा साहित्य' पर लेख है। मारीशसीय कथा साहित्य-संदर्भ में मेरे 5 कथा साहित्य रचनाओं में से एक की भी चर्चा नहीं है। यथा: कहानी-संग्रह 1. स्वघोषित आचार्य 2. सेवा आश्रम,2008 3.बर्फ सी गर्मी,2014. और लघुकथा-संग्रह: 1.कथा संवाद और 2. घाव करे गम्भीर। सभी स्टार पब्लिकेशन, दिल्ली से प्रकाशित हुए हैं।
एक लेखक की रचनाओं की खूब चर्चा करते हैं क्योंकि आप उन से लाभांवित हैं और दूसरी तरफ आप उस नाचीज की रचनाओं का नाम तक नहीं लेते क्यों कि उसे फूटी कौड़ी भी आप नहीं देखना चाहते। अपने आप को प्रवासी साहित्य के जानकार अपने को कैसे बताने लगे।
जब टेप में ग़लत रिकार्डिंग होती है तो जब भी और जहाँ भी बजेगा तो ग़लत ही बजेगा। मसलन डाॅ कल्पना गवली द्वारा संपादित 'हिंदी प्रवासी कथा साहित्य' (माया प्रकाशन, कानपुर,2018) उठा लीजिए। शोधार्थियों ने अपनी खोज के लिए के. के. गोयनका द्वारा लिखित 'हिंदी का प्रवासी साहित्य' का संदर्भ लिया है। जाहिर है शोधार्धियों ने ग़लतियाँ पढ़ कर ग़लतियाँ की हैं, जो उनकी नहीं मानी जानी चाहिए।
मैं अब तक काफी कुछ कह चुका हूँ कि क्यों मारीशस का हिंदी साहित्य प्रवासी साहित्य नहीं है। यह निर्विवाद तो नहीं पर मारीशस की हिंदी को 'भारतेतर हिंदी साहित्य ' कहना बेहतर होगा। भारतेतर सिर्फ शब्द नहीं है, यह एक अलग सोच है जिस से लम्बे समय में अंततः हिंदी को ही लाभ होना है और इसे अंतरराष्ट्रीय मंच की भाषा बनाने में मारीशस संबल दे सकता है। जरूरी नहीं कि हिंदी साहित्य के प्रवासी देश हिंदी को यू एन की भाषा बनाने के लिए, भारत के हर अंतर्राष्ट्रीय कदम का समर्थन करे।
जबकि मारीशस के प्रधान मंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी के लिए समर्थन करने का भारत को वचन दिया है। इस तरह से मारीशस एक अलग देश की हैसियत से खड़ा है, जो एक हिंदी देश भी है।इस लिए मारीशसीय हिंदी साहित्य को प्रवासी साहित्य न कहकर 'भारतेतर हिंदी साहित्य' कहने का मैं पक्षधर हूँ ।
लेखक परिचय-
राज हीरामन
वरिष्ठ लेखक, कवि एवं पत्रकार
संपर्क सूत्र- महात्मा गांधी संस्थान, मॉरीशस
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