सभा बीच अपमान मान कें, शुक्र चला जंगल की राही (कविता) - विश्व बन्धु शर्मा

सभा बीच अपमान मान कें, शुक्र चला जंगल की राही


(हरियाणी/बांगरू बोली)



विश्व बन्धु शर्मा, रोहतक (हरियाणा) भारत


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सभा बीच अपमान मान कें, शुक्र चला जंगल की राही।
क्यूँ गुरु को बणा दिया देव गुरु, बात समझ बिल्कुल ना आई।।


वो देव लोक को त्याग गया, मन मैं मलाल घणा आया।
देवों से मैं योग्य बणाऊँ, मन मैं यो संकल्प उठाया।
असभ्य जंगली लोग मिले, उपकार करूँगा मन चाह्या।
मैं इनको बली बणा दूँगा, दो गुरुओं में छिड़ी लड़ाई,,,,,,,,1


देव और दानव लड़ते थे, पर हार गुरु की होती थी।
असुरेन्द्र की हार हुई थी, पुत्री पिता मोत पर रोती थी।
चिता जला दी दस्यु गुरु ने, असुरैया ढाढस खोती थी।
आसुरी माया नाम धरा, शुक्र ने सोई शक्ति जगाई,,,,,,,2


फिर शुक्र होगे ध्यान मगन, वहाँ तृषा से व्याकुल हुए ऋषि।
वो ठाय कमण्डल चाल पड़े, माया देख दंग हुए ऋषि।
जल के बदले कंकड़ भरगे, निज मन मैं होगे तंग ऋषि।
ध्यान लगा जब पहचानी तो, उस माया की करी बड़ाई,,,,,3


मैं भी पहचान नहीं पाया, तेरी माया का तोड़ नहीं।
लोहा तुझ से ले पाए जो, देवों मैं ऐसा जोड़ नहीं।
किसी ऋषि को पति बनाओ तुम, कश्यप के तप का तोड़ नहीं।
पुत्र उन्हीं से पाओ तुम, फिर देवों पर करो चढ़ाई,,,,,,,4


छल माया से कश्यप फसाया, उसको अपना पति बनाया।
फिर सुरादमन पुत्र था पाया, उसनै फिर गजमुख था जाया।
ऋषि से सिंह मुख भी चाह्या, अजामुखी पुत्री को पाया।
तब शिव तप मैं लागे चारों, तप बल की पकड़ी थी राही,,,,5


काट काट भुज अर्पण कर दी, सब शिवजी को लगे मनाने।
होम दिया तन यज्ञ कुण्ड मैं, वो अवढर दानी क्या जाने।
वरदान दे दिया मन चाह्या,कपटी की कपटी ही जाने।
जो कटे अंग फिर जुड़ जाये,शिव अंश से मृत्यु पाई,,,,,,6


वाह माया सीखी माता से, वोह शक्ति शिव से पाई थी।
भुजा दिखती केवल उसकी, असुर नै सकल छिपाई थी।
सुरग लोक पर धावा बोल्या, भुजा नै धूम मचाई थी।
जयंत ठा लिया सबकै आगै,किस्से की ना पार बसाई,,,,,7


पुत्री सहित यमराज ठा लिया, विश्व कर्मा को कैद किया।
विसकर्मा की पुत्री हर ली, फिर देवों ऊपर ध्यान दिया।
वै अगन पवन अर वरुण हरे, सबको अपणा दास किया।
उस सुर सैया के बेटे नै, फिर देवों की करी पिटाई,,,,,,8


फिर त्राहि त्राहि जग मैं होगी, ऋषि का टूट्या भरम भरोटा।
क्यूँ काणे काले बाह्मण का, क्यां तैं अपमान किया खोटा।
बोया जिसा काटणा पड़ता, सहणा पड़ै कर्म का सोंटा।
पवन बुहारी देता देख्या, अग्नि देव नै खीर पकाई,,,,9


जल देवता कहार बणा था, घर का सारा पाणी भरता।
विसकर्मा देवों का शिल्पी, उसकी रोज चाकरी करता।
जयंत देव इंद्र का बेटा, उत थाली मैं रोटी धरता।
सभी घूमते आगै पाछै, वहाँ देवों की सामत आई,,,,,,10


इंद्र गया ब्रह्मा जी धोरै, अब मुझे बचाओ जगत पिता।
को है शत्रु हाथ है किसका, है इसका मुझको नहीं पता।
बिस नू से फरियाद करी तो, लड़ने का फ़ौरण किया मता।
वहाँ चक्र सुदर्शन फेल हुआ, फिर मात करारी खाई,,,,,,11


तब इंद्र ब्रह्मा विष्णु तीनों, ये मिलकें सब कैलास गए।
हाथ जोड़ सभी विनति करते, प्रभु देव सभी बरबाद हुए।
हाथ एक लड़ता है रण मैं, आयुध सब बारा बाट हुए।
अब आप बचाओ आशुतोष, अब तो होती नहीं समाई,,,,,,,12


अब मैं भी कुछ ना कर सकता, पर एक उपाय बताता हूँ।
शक्ति बाण और पाशुपत दे, देव सेनापति बनाता हूँ।
मम अंश पर योग ना माँ का, वो दिया वरदान जताता हूँ।
कार्तिकेय है छः मां ओं का, हाथ मोत इस हाथ बताई,,,,,,,13


ईश्वर निश्चित करता है जो, बस वही घटित हो जाता है।
हम तुम तो बस कठपुतली हैं, इंगित से सब हिल जाता है।
हम सब हैं उस काल के बंधन, वह कालातीत कहलाता है।
व्यवस्था बदलो सुरग की इंद्र, यह कर्म की पटरी चलाई,,,14


सुंदर पथ पर चलो चलाओ, सभी को सुख देता है न्याय।
यह अनीति नाश का कारण, सभी कुछ हर लेता अन्याय।
पुत्र गया व मान चला गया, अंधी पीसती कुत्ता खाय।
अब भी संभलो इंद्र देव तुम, कदे तन कै लाग ज्या स्याही,,,15


नर कर्म से इंद्र बनते हैं, कर्मों तैं कष्ट भरैं सारे।
देव दनुज नर किन्नर प्राणी, कर्म करण नै तारे सारे।
कर्म भूल मनमानी करते, फिरते जग मैं मारे मारे।
बन्धु पूत अपर्णा साथ करो, तेरी होज्या मन की चाही,,,,,,,,16


 


कवि परिचय-


विश्व बन्धु शर्मा
कार्य क्षेत्र - सेवा निवृत्त प्रोफेसर (33वर्षवैश्य कॉलेज रोहतक में तथा साढ़े तीन साल बाबा मस्त नाथ विश्व विद्यालय में)


रुचि- गद्य व पद्य की समस्त प्रचलित विधाओं में सृजन व विविध पत्र पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन

उद्देश्य- हिंदी को लोकप्रिय राष्ट्रभाषा बनाना


 


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