विष-पान (कविता) - डॉ अनीता पंडा

विष-पान



डॉ अनीता पंडा, शिलांग (मेघालय) भारत


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सागर की उठती गिरती लहरें 
मस्तिष्क में जगाती हैं एक प्रश्न ।
देकर अमृत का दान 
क्यों किया था शिव ने विष-पान?
अंतर्मन ने यों कहा मुझसे  -
सुख है जीवन का अमृत,
दु:ख है एक गरल समान ।
दुख-सुख से बना है इन्सान, 
जीवन पथ है सागर समान ।
इस क्षणभंगुर जीवन में 
जब आता है विप्लव का भूचाल 
विचलित होता है मानव-मन
क्रंदन का उठता है ज्वार, 
माँगता इन्सान अमृत का दान, 
तब कोई शिव करता है विष-पान ।
ये शिव कोई नहीं  -
है केवल आत्मा शरीर की 
जो सागर समान रहती है ।
मानव क्या समझे इस गहराई को, 
शाश्वत माने इस नश्वरता को ।
जब-जब वह होता है भयाक्रांत, 
तब कोई शिव करता है विष-पान ।
मिथ्या सुख से हो अनन्दित, 
नहीं कर पाता वह सुधा-पान ।
भर जाता है जब हलाहल, 
दिशा - हीन होता है इन्सान ।
जीता है जब वह दानव समान ,
तब कोई शिव करता है विष-पान। 


 


परिचय-


डॉ अनीता पंडा


कार्य क्षेत्र - अतिथि प्रवक्ता, मार्टिन लूथर क्रिश्चियन विश्वविद्यालय, शिलांग,


वरिष्ठ शोधकर्ता ICSSAR, New Delhi


कार्यक्रम संचालक NES AIR Shillong 


रुचि- गद्य व पद्य की समस्त प्रचलित विधाओं में सृजन व विविध पत्र पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन

उद्देश्य- हिंदी को लोकप्रिय राष्ट्रभाषा बनाना


 


 


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