चिड़ियां और मानव (कविता) - डॉ आलोक कुमार सिंह

चिड़ियां और मानव



डॉ आलोक कुमार सिंह, बोमडिला (अरुणाचल प्रदेश) भारत


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चिड़ियां विद्रोह नहीं करतीं।
वे सिर्फ तितलियों की तरह उड़ना चाहती हैं
सुदूर अंचल में।
जहां कोई देश हो न बंधन ।
जहां परियां नांच गा रही हों।


चिड़ियां किसी से नहीं लड़तीं।
बल्कि चूं चूं करके खेलती हैं।
मिल बांटकर चारा चुंगती हैं।
कीड़े-मकोड़े से घर को साफ करके
गुलजार रखती हैं।


वे पिंजड़े में नहीं रहना चाहतीं।
बल्कि अपने लिए घोंसला बनातीं हैं।
ताकि उनके चूजे निढ़ाल होकर सो सकें।


चिड़ियां बदला नहीं लेतीं।
बल्कि एक नीड़ उजड़ जाने पर,
तिनका-तिनका जोड़कर एक और घर बनाती हैं।
ताकि थके मांदे रात्रि में विश्राम किया जा सके।


चिड़ियों को कुछ नहीं चाहिए।
बस दो दाने।
एक चुंगने के लिए और एक चुंगाने के लिए।
चोंच भर पानी पीने के लिए।
थोड़ी सी हवा और थोड़ा आकाश।


चिड़ियां पेट की खातिर,
लोभ के वशीभूत,
उस शिकारी के लिए नर्म
चारा होती हैं।
जो दाने चुंगाने के नाम पर,
अपने जाल में फंसा लेता है।
और फिर उनका बध कर देता है।


आखिर कब तक 
बेजुबान पशु-पक्षियों को
छला जाता रहेगा।
आखिर कब तक
बेजुबानों के प्रति क्रूरता करता 
यह दानव मानव कहलाता रहेगा।


 


कवि परिचय-


डॉ आलोक कुमार सिंह

कार्य क्षेत्र - असिस्टेंट प्रोफेसर ,हिंदी, बोमडिला, वेस्ट केमोंग, अरुणाचल प्रदेश


रुचि- गद्य व पद्य की समस्त प्रचलित विधाओं में सृजन व विविध पत्र पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन

उद्देश्य- हिंदी को लोकप्रिय राष्ट्रभाषा बनाना


 


 


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