मुखौटे लगाने का चलन अब आम हो गया
अजय "आवारा", बेंगलुरू (कर्नाटक) भारत
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जानें क्यों यह ज़हान अब दुकान हो गया,
रिश्तों के लेन देन का यह मकान हो गया।
बिकते हैं अधिकार अब फर्ज के बदले यहां,
खाली जेब रहना तो अब यहां पाप हो गया।
खो गए कहीं अब भाव साथ साथ रहने के,
सुकून भी अब तो यहां कारोबार हो गया।
कहां ले कर जाऊं अब पीड़ मेरे मन की,
दर्द का बयान भी अब यहां व्यापार हो गया।
रहने दे खाली खाली अब दिल के कोने तू,
सपने तोड़ देना तो अब एक शौक हो गया।
तू डूबा रह गया यूं ही उन्हीं पुराने ख्यालों में,
प्रेक्टिकल होना अब जरुरत सबकी हो गया।
तुझे नहीं कुबूल तो जी ले तन्हा अब तो तू,
तनहाई में रहना भी अब तो आम हो गया।
शायद मुझे रास न आए तेरी यह नियती,
अपने वजूद का मुझे अब एहसास हो गया।
नहीं समझ पाएगा उसकी बात तू आवारा,
मुखौटे लगाने का चलन अब आम हो गया।
कवि परिचय-
अजय यादव "आवारा"
कार्य क्षेत्र - व्यवसायी
मूल रुप से छंद मुक्त आधुनिक काव्य लेखन एवं अधिकतर साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े होने के साथ, साहित्यिक गतिविधियों में पूर्ण रुप से सक्रिय
रुचि- गद्य व पद्य की समस्त प्रचलित विधाओं में सृजन व विविध पत्र पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन
उद्देश्य- हिंदी को लोकप्रिय राष्ट्रभाषा बनाना
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