सच के शीर्षासन और झूँठ का झंडा
जयराम शुक्ल, भोपाल (म0प्र0) भारत
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हमारे शहर में पुराने जमाने के खाँटी समाजवादी नेता हैं- दादा कौशल सिंह। खरी-खरी कहने में उनका कोई शानी नहीं। बात-बात में वे एक डायलॉग अक्सर दोहराते हैं - बड़ी अमसा-खमसी मची है, पतै नहीं चलि पावै कि का झूँठि आय का फुरि। यानी कि सच और झूठ में ऐसा मिश्रण हो गया है कि सही समझना मुश्किल।
कौशल दादा की इस अमसा-खमसी से पुराने दिनों एक वाकया याद आया..। एक बार चाचा के साथ गाँव की बारात गया। लड़की वालों जनमासा दिया भैंस के तबेले में। जहां जाजम बिछी..बारातियों के लिए..। संझा भोजन के बाद चाचा ने कहा चलो आराम कर लेते हैं, दस कोस पैदल चलकर आए हैं। अब जैसी ही झपकी लगी चाचा बड़ड़ाते हुए उठ गए। इधर मुँह करो तो दारू भभकती है, उधर करो तो गाँजे की गुंग। ससुरा कौन दारू पिए हैं, कौन गाँजा ऐसी अमसा-खमसी कि जब तक कुछ समझ में आए नीचे से किलनी(एक कीड़ा) काटने लगती है और ऊपर से मच्छर, कहाँ चले जाएं। आजकल 'सच' का हाल मेरे चाचा जैसे है..परेशान बड़बडाता हुआ।
यह सांस्कृतिक अमसा-खमसी है। शहर के दारू और गाँव के गाँजे की मिलीजुली नई संस्कृति विकसित हुई है। हमारे अग्रज कवि कैलाश गौतम ने इस सांस्कृतिक समिश्रण पर बहुत ही शानदार दोहा लिखा है-
दूध दुहे बल्टा भरे गए शहर की ओर।
दारू पीकर शाम को लौटे नंद किशोर।।
गाँव की संस्कृति को बल्टे में भरकर शहर में बेंच दी और शहरी संस्कृति का डोज लेकर घर लौट आए।
सोशल मीडिया ने इस गड्डमगड्ड को ऐसा पेचीदा बना दिया की सच ढूंढना रुई में सुई ढूंढने जैसा है। यह एक नया डिजिटल उत्पाद है कि आप लाख जतन करके सच को सच झूठ को झूठ अलग नहीं कर सकते।
एक महाशय ने इसी कालम में छपे मेरे लेख को अपना बनाकर फेसबुक में डाल दिया, यही नहीं मुझे टैग करते हुए। मैंने उन्हें मैसेज भेजकर बताया कि मेरा यह लेख फलाँ अखबार के मेरे नियमित स्तंभ में फलाँ दिन छपा है..मैंने स्क्रीनशाट भी डाल दिया।
महाशय का जवाब आया- तो आप कितने दिनों से मेरे लेखों की चोरी करके छपवा रहे हैं। मैं तो आप पर दावा ठोकूंगा..।
अब इसका जवाब मुझसे बन नहीं पड़ा..यह लेख मेरा है..इसका प्रमाण कैसे देता, सिर्फ कह ही सकता हूँ साबित नहीं कर सकता।
कमेंट बाक्स में सामने वाले महाशय के समर्थक मुझे ट्रोल करने लगे..लगा कि मैं कहाँ फँस गया..। इत्तेफाक से याद आया कि उस लेख में मैंने अपने गाँव और एक दो मित्रों के नाम का उल्लेख किया था..।
मैंने फिर पूछा- तो आप किस गाँव के हैं..
वह बोला- 'बड़ीहर्दी' के..!
मैंने कहा- लेकिन मैं तो आपको जानता नहीं..।
उसने जवाब दिया.. जानोगे कैसे जब तुम मेरे गाँव के हो ही नहीं..।
तो अच्छा वो छंगा और गफ्फार भी तुम्हारे गांव के होंगे..।
हाँ हैं न..एक मेरा बरेदी था और दूसरा गाँव का दर्जी(मेरे लेख में इनका इसी रूप में उल्लेख था)..
क्यों कोई शक..?
मैंने माथा पकड़ा..फिर उससे विनती की मेरे भाई ये पूरा लेख,..मेरा गाँव बड़ीहर्दी,..छंगा और गफ्फार तू ही रख अपने पास,..। बस मेरे बगीचे के आम का वो पेंड़ जिसे हम 'ठिर्रा' कहते है, उसको भर छोड़ दे ..(लेख में बगीचे और इस आम के पेड़ का भी मैंने जिक्र किया था)।
यहां तो वह मुहावरा भी उल्टा लटककर कुछ ऐसे बन गया- झूट्ठे का बोलबाला, सच्चे को गाँव निकाला।
सोशलमीडिया मेंं ऐसी बेइंतहा अमसा-खमसी चल रही है। चार लेखों से एक-एक पैरा लिया और बन गया नया लेख। बस कट-पेस्ट की कला आनी चाहिए। कभी-कभी तो बच्चन, सुमन, नीरज जैसे कवियों की दो दो लाइन फेंटकर अपने नाम से एक कविता पेश कर देते हैं उदयीमान कविगण।
और तो और एक बार आयोजकों ने सुमन की वो पंक्तियां- क्या हार में क्या जीत में..वाली अटलजी के नाम से पोस्टर में चस्पा कर दी। मैंने ध्यान दिलाया कि यह सुमनजी की पंक्तियां हैं..जिसे अटलजी ने संसद में उल्लेखित किया था..। आयोजक बोले- शुक्लाजी आप की तो मीनमेख निकालने की आदत है..ये सुमन कौन होता है अटलजी की कविता को अपनी कहने वाला।
मैंने बताया डा.शिवमंगल सिंह सुमन अटलबिहारी वाजपेयी के कविगुरू थे..। वे बोले- रहे होंगे कभी पर अब कहाँ अपने अटल और कहाँ आपके सुमन।
सोशल मीडिया में उपदेश और ज्ञान का रायता अनवरत रिसता ही रहता है। किसी भी सड़क छाप कविता के ऊपर लिख दिया..'शायद ऐसे मौके के लिए ही बच्चनजी ने यह मार्मिक कविता लिखी थी...। विवेकानंद, चाणक्य के फर्जी कथोपकथन भी बहुत चलते हैं। किसी के पास इतनी फुर्सत कहां कि किताब खोलकर सच का पता लगाए कि..इन्होंने कहीं ऐसा कहा भी या नहीं। सोशल मीडिया में लोग ऐसे ही घोड़े-गधे का सिर एक दूसरे के धड़ में जोड़ते रहते हैंं। कुछ गंभीर बौद्धिक दिखने के लिए.. कांट, कन्फ्यूसियस, मैक्समूलर, फ्रायड और न जाने कैसे-कैसे अँग्रेज विद्वानों के कोटेशन अपने हिसाब से बनाकर डालते रहते हैं, जबकि जरूरी नहीं कि इन्होंने ऐसा कभी कहा ही हो।
मित्र ने कहा ..फैक्ट चेक की सुविधा तो है। लेकिन उन्हें क्या बताए गूगल में फैक्ट डालने वाला आदमी ही है न उसका अपना फैक्ट। हर मर्ज की एक दवा..गूगल गुरू के पास सत्तर फीसद जानकारी फेक है..सिर्फ़ तीस फीसद पर भरोसा कर सकते हैं। उस तीस फीसद में लेखक की मौलिक पांडुलिपि या ई-बुक हैं।
एक बार भोपाल में मेरे एक साथी पत्रकार ने नवोदित अभिनेत्री चित्रांगदा सिंह के बारे में लिख दिया कि ये सतना शहर के डालीबाबा चौक में में पैदा हुईं। मैंने बताया कि यह जानकारी तो फर्जी है मैं उसी इलाके का हूँ। वे बोले विकीपीडिया यही बोल रहा है..आपकी माने या विकी की..। मैंने कहा विकी की ही मानो और अगली बार दारासिंह को भोपाल के भैंसाखाना में पैदा करवा देना।
विकीपीडिया ओपन पेज है..आप जो भी संपादित करोगे अगले संशोधन तक वही दिखेगा। पत्रकारिता में विकीपीडिया ऐसा संदर्भ बन चुका है कि पिछले चुनाव में देशभर की मीडिया ने चुरहट क्षेत्र की रिपोर्टिंग में राव शिवबहादुर सिंह को नेहरू कैबिनेट का खनिज मंत्री लिखा.. जबकि वे कप्तान अवधेश प्रताप की अगुवाई वाली विंध्यप्रदेश सरकार में मंत्री रहे..अब विकीपीडिया ने कह दिया सो ब्रह्म वाक्य।
सोशलमीडिया को सत्य को दूषित करने वाली फैक्ट्री में बदल दिया गया है जहां धुँए की जगह झूंठ का गुबार निकलता है।
कट-पेस्ट संस्कृति आम लेखन के साथ मंचों, संगोष्ठियों तक आ धमकी है। फेसबुक में ऐसे कई सज्जन मिलेंगे जो पूरी गुंडई के साथ दूसरों का जस का तस टीप देते है। यदि सामने वाला भी गुंडा टाइप का हुआ तो बात मादर-फादर तक पहुंच जाती है। हाल ही ऐसा हुआ। चोरी पकड़ी गई तो अच्छी खासी मलानत हुई। कटपेस्ट के उस्ताद महाशय पतली गली से निकल लिए.। अब वे दूरदराज और अनचीन्हों का लिखा पोस्ट टीपने लगे। मीड़िया का तवा हमेशा गरम रहता है..कोई कभी भी रोटी सेंक ले..।
चोट्टई सोशल मीडिया से निकलकर मंच तक आ पहुंची है। पिछले साल हमारे शहर कविसम्मेलन में उभरते हुए कथित नामी शायर/गीतकार आए.. कुँवर साहब फ्राम कोटा। आज के मंचीय कवियों में भी एक हुशियारी भरा चलन है..मुसलमान हुए तो कविताओं में बजरंगबली या किशन कन्हैया के गुन गाकर रंग जमा दिया। हिंदू हुए तो अल्ला हू, अलीअली बोलकर तालियां बटोर ली। लेकिन दोनों किस्म के शायर/कवि कहते-करते मौके की नजाकत के हिसाब से..। सुनने वालों में बहुमत अली का है या बजरंगबली का गीत-कविताएं इस हिसाब से ट्विस्ट होती है..। हाँ श्रोताओं की तालियां भरपूर मिलती हैं जो मंचीय कवियों के लिए शिलाजीत सी असरकारक होती हैं। न बजाओ तो लगता है कहीं वो कवि ही मंच कूदकर अपना गला न चपा दे।
बहरहाल वो जो जनाब थे कुँवर साहब पहले बजरंगबली पर एक गीत सुनाकर रंग जमाया, जयकारा लगवाया..फिर लंबी टेर लेकर ..गाने लगे
-ताजमहल बनवा तो दूँ ..
मुमताज कहाँ से लाऊँगा..।
मुझे याद आया कि इस गीत को मैंने सन् 80 में सागर आजमी के मुँह से सुना था..और इन जनाब की उमर बताती है कि वे तब पैदा भी न हुए होंगे।
आयोजकों के सम्मान को ध्यान रखते हुए बीच में बोला कुछ नहीं.. बस रिकॉर्ड कर लिया मोबाइल पर। वे जनाब सबसे मँहगे जलवेदार कवि थे..। चूँकि उस आयोजन में मैं भी बतौर अतिथि था..और बाद में जमजम-चुस्की के समय जब उन्हें ध्यान दिलाया कि जनाब ये तो मेरे प्रिय गीतकार सागर आजमी का गीत है..! सुनकर वे बेशर्मी से हें-हें हँसते हुए बोले..यही तो मुश्किल है कि जब भी मेरा कोई गीत हिट होता है तो कई टुटपुँजिए दावेदार चर्चाओं में आने के वास्ते सामने आ जाते हैं..। छोड़ों भी शुक्लाजी इस शो बिजनेस में सब चलता है..आई नेवर माइंड इट।
याद आया कि ये जनाब तो बाय एयर आए हैं..और वे बेचारे सागर आजमी राज्यपरिवहन की खटारा बसों से कवि सम्मेलनों- मुशायरों में पहुँचते थे। ऐसे बेशर्म चोट्टे के आगे मेरी हिम्मत जवाब दे गई कि यूट्यूब में सागर आजमी का गीत सागर आजमी के मुँह से सुनवा दूँ..। श्रोता चोट्टे के साथ थे..मेरे खोजे हुए सच के साथ नहीं।
लेखक परिचय-
जयराम शुक्ल
35 वर्षों से पत्रकारिता, देशबंधु, स्टारसमाचार, पीपुल्स समाचार, पत्रिका चरैवेति के संपादक रहे, पत्रकारिता में शोध व अध्यापन भी, देशभर के समाचारपत्रों में समसामयिक विषयों पर आलेख, तीन पुस्तकें प्रकाशित। वन्यजीवन पर tale of the white tiger.जैसी चर्चित पुस्तक के लेखक..। विश्वसंवाद केंद्र द्वारा.. ,देवर्षिनारद सम्मान', माधवराव सप्रे पुरस्कार..।
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