कुत्सित मंशा (कविता) - जयप्रकाश पाराशर

कुत्सित मंशा



जयप्रकाश पाराशर, दिल्ली, भारत  


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देश पड़ौसी की मंशा थी ,सारी दुनिया सो जाए।


इस वायरस के विषम ज्वार से, शत्रु हमारे खो जाए।


दुनिया पर परचम लहरेगा, दुनिया लोहा मानेगी।


चीन सरीखा कोई नहीं है तब ताकत पहचानेगी।


ऐसी भीषण ज्वाल गरल की, मानव उसमें चला चला गया।


गड्ढा जिसने खोदा था वह,स्वयं उसी में चला गया।


जीवित जीवों को खाकर परजीवी चीनी बने हुए,


अपनी लाशों के शोणित में घुटनों तक हैं सने हुए।


लाशों के अंबार लगे हैं ,दुनिया के मैदानों में,


एक देश की कुत्सा से ही, दहशत है मेहमानों में।


आज प्रकृति भी मौन रुप से अतिचारों पर रोई है,


अतिवादी विज्ञानी जन ने क्यों मर्यादा खोई है।


क्या वह समझ नहीं पाया है, प्रकृति के वरदानों को,


जीवन के संतुलन और उस ईश्वर के अवदानों को।


देखो तुम ने जहर बनाकर लोगों को अभिशप्त किया,


नरक दे दिया दुनिया को और अपने को परितृप्त किया।


परभक्षी चीनी वाशी तुम निज कर्मों को रोओगे,


दूजे का सुख छीन कभी ना , नींद चैन की सोओगे।।


 


कवि परिचय-


जयप्रकाश पाराशर
कार्य क्षेत्र - प्रवक्ता हिंदी


रुचि- गद्य व पद्य की समस्त प्रचलित विधाओं में सृजन व विविध पत्र पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन


उद्देश्य- हिंदी को लोकप्रिय राष्ट्रभाषा बनाना


 


 


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