प्रो॰ विनोद कुमार तनेजा जी, डी.लिट.
पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग,गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर,पंजाब(भारत)
हिंदी विषय में डी.लिट. प्रो॰ विनोद कुमार तनेजा जी भारत के पंजाब में स्थित गुरु नानक विश्वविद्यालय, अमृतसर के हिन्दी विभाग में अध्यक्ष पद पर रह चुके हैं। प्रो॰ विनोद कुमार तनेजा जी हिंदी के उत्थान के लिए पंजाब सहित भारत के कई राज्यों में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। वे हिंदी के सच्चे साधक हैं। सेवानिवृत्ति के उपरांत भी वे हिंदी की सेवा में निरंतर लगे हुए हैं। वे हिंदी के प्रतिष्ठित अर्द्धवार्षिक पत्र कश्फ़ के संपादक भी हैं। भारत के अहिंदी भाषी प्रांत पंजाब में हिंदी के प्रति उनके योगदान को ध्यान में रखते हुए ‘प्राज्ञ साहित्य’ के इस अंक में पत्र के संपादक उमाकांत 'प्राज्ञहंस' की गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर पंजाब के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो॰ विनोद कुमार तनेजा जी से की गयी बातचीत के मुख्य अंश इस आशा के साथ प्रकाशित किए जा रहे हैं कि यह साक्षात्कार हिंदी जगत को नयी दिशा प्रदान करने में अवश्य सहायक सिद्ध होगा।
संपादक
उमाकांत 'प्राज्ञहंस' - डॉ. साहब, आप हिंदी से जुड़े रहे हैं। हिंदी के राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित न हो पाने में आप अन्य भारतीय भाषाओं को जिम्मेदार मानते हैं या अंग्रेजी को ?
प्रो. विनोद तनेजा जी- हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में तो बहुत पहले से स्वीकृत है। इसे पूरी तरह समझने के लिए आवश्यक है कि उसके रूप को सही तरह समझा जाए। हिंदी कोई एक भाषा-बोली न होकर विभिन्न क्षेत्रीय भाषा-बोलियों का सामूहिक गुच्छ है जिसमें अवधी, ब्रज, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, बिहारी तथा अन्य मध्य भारतीय बोलियाँ सामूहिक रूप से आ जाती हैं। आप जब हिंदी साहित्य के इतिहास का अध्ययन करते हैं तो इन सभी क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्यकारों का परिचय आ जाता है।
उमाकांत 'प्राज्ञहंस' - डॉ. साहब आपके अनुसार हिंदी का सही रूप क्या है ?
प्रो. विनोद तनेजा जी- हिंदी का सही रूप 'भाषा बहता नीर' के संदर्भ में एक ऐसी लोकभाषा का है जो क्षेत्रीयता की संकीर्णता से परे जन-जन की भाषा है। इसकी ग्राह्य शक्ति पर कोई सवालिया निशान खड़ा करना जनमानस को भ्रमित करना है। इसका प्रारंभ ही विदेशी सामंती समाज और उस समय के जन सामान्य के पारस्परिक संवाद के लिए हुआ। यही वजह है कि इसके शब्द-भंडार में संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ तद्भव शब्दों के अतिरिक्त क्षेत्रीय बोलियों के शब्दों के साथ सामंती प्रभाव से अरबी, फ़ारसी शब्द जहाँ प्रारंभ में आये वहीं परवर्ती काल में पुर्तगाली, स्पेनिश, अंग्रेजी आदि के शब्द भी समय-समय पर जुड़ते गये। हिंदी में जहाँ पाजामा, अनार, दीवार, बदनाम, दरवाजा परेशान जैसे फ़ारसी के शब्द इस तरह से घुलमिल गये हैं कि वे पराये नहीं लगते। इसी तरह अरबी भाषा के - किताब, वकील, अदालत, इंसाफ, इलाज आदि। साथ ही तुर्की के - चाकू, कुली, काबू, कुर्ता, चेचक जैसे शब्द आज हिंदी के अपने बन चुके हैं। सामान्य रूप में प्रयुक्त तहसनहस, नगाड़ा, डेरा पश्तो के हैं और इंजन, बेंच, क्रिकेट, बिस्कुट अंग्रेजी से लिए गये हैं। मास्टर, टेबुल, कूपन फ्रांसीसी से हैं। आलमारी व बोतल पुर्तगाली हैं। सिगरेट स्पेनी है और ट्रेन जर्मनी शब्द है। रिक्शा शब्द जापानी मूल का है और चाय चीनी का। इस तरह हिंदी ऐसी लोक प्रचलित भाषा है जो अपनी शब्द संपदा जहाँ से भी हो सकती है संगृहीत करने में हिचकिचाहट महसूस नहीं करती और इसकी यही भावना इसे राष्ट्र में सर्वग्राही बनाती है। हिंदी में विदेशी ही नहीं भारतीय क्षेत्रीय भाषा-बोलियों के शब्दों को भी अपनाया गया है। मराठी, गुजराती, बँगला, पंजाबी, उड़िया, तमिल, संथाली के कई शब्दों का प्रचलन इसका प्रमाण है।
उमाकांत 'प्राज्ञहंस' - क्या हिंदी की सभी बोलियों को सम्मिलित करते हुए अन्य भारतीय भाषाओं के प्रमुख शब्दों को हिंदी में उचित सम्मानित स्थान देते हुए क्या भारत को भी चीन की मंदारिन की तरह एक राष्ट्रीय भाषा हिंदी के व्यापक स्वरूप के साथ उसे भारत की भाषा स्वीकार करना चाहिए या नहीं ? यदि हाँ तो ऐसा करने में हिंदी को किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा ? स्पष्ट करने की कृपा करें।
प्रो. विनोद तनेजा जी- पूर्वाग्रही संकुचित विचार-वीथियों से मुक्त होकर यदि वास्तविकता और सही राष्ट्रीय-भावना को सामने रखकर इस संदर्भ में आगे कार्य करने से ही सही निर्णय संभव है।
उमाकांत 'प्राज्ञहंस' - डॉ. साहब पंजाब में पंजाबी के होने पर हिंदी को आप किस रूप में देखते हैं ?
प्रो. विनोद तनेजा जी- आज पंजाब में सब साधन उपलब्ध होते हुए भी हिंदी राजनीतिक गलियारे से संस्तुति की मुखापेक्षी है। पंजाबी से हिंदी का कोई किसी प्रकार का विरोध नहीं है। साहित्यिक भाव सहोदरता के साथ इनके भावाभिव्यंजन की समता व क्षमता से सभी परिचित हैं। वीरता हो या भक्ति, रीति हो या देश प्रेम, कविता हो, कथा हो या नाटक सभी में दोनों की समान दक्षता दर्शनीय है। भेद तो बस.......।
उमाकांत 'प्राज्ञहंस' - पंजाब में हिंदी की बात करें तो पंजाब प्रांत के हिंदी के प्रति योगदान को आप कैसे देखते हैं ?
प्रो. विनोद तनेजा जी- पंजाब में हिंदी पर जब हम बात करें तो एक बार तो इतिहास के गवाक्ष खोलने पड़ेंगे। याद करें अविभाजित पंजाब की तो अपभ्रंश भाषा के बदलाव की पहली किरण मुलतान शहर के अब्दुल रहमान की रचना 'संदेश रासक' में झलकती दिखाई देती है। उसके बाद चंदवरदाई का संबंध भी पंजाब के लाहौर नगर से रहा और भी कुछ नाम होंगे जिन पर समय की काली पर्त जम चुकी हैं। फिर मध्यकाल में भक्ति आंदोलन के समय हमारे गुरुओं की वाणी और बद्दोकी के गुसाईं संतों की वाणी के साथ-साथ अलग-अलग क्षेत्रों के दरबारी कलाओं की रचनाओं की लिपि भले ही गुरमुखी रही पर भाषा उस समय की हिंदी रूप (ब्रज भाषा) ही रही। इसके बाद आगे चलकर जो उलटफेर हुए उनमें भी पंजाब की प्रचारित हिंदी का विशेष योगदान रहा है। सन् 1947 से पहले 1873 में अमृतसर से प्रकाशित 'हिंदी प्रकाश' के रूप में इसके प्रमाण मिलते हैं। इसके अतिरिक्त सन् 1882 में लाहौर से प्रकाशित 'भारत हितेषणी', 1891 में 'जैन प्रभाकर', 1895 में अमृतसर से प्रकाशित 'खद्योत' आदि पत्रिकाओं के नाम आते हैं। इनके अतिरिक्त स्यालकोट, रावलपिंडी, लुधियाना, पटियाला, अंबाला, रोहतक, हिसार आदि नगरों से भी हिंदी का प्रचार जनसामान्य में होता रहा। इसी क्रम में पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर की 1882 में स्थापना के बाद उसके द्वारा संचालित रत्न, भूषण व प्रभाकर की परीक्षाओं ने भी हिंदी के प्रचार व प्रसार में विशेष योगदान दिया। यहाँ अमृतसर के चतरथ परिवार का उल्लेख भी आवश्यक है क्योंकि उन्होंने इसके लिए विशेष प्रयास किये। इसके अतिरिक्त डी ए वी संस्थाओं के साथ जुड़े महात्मा आनंद स्वामी सरस्वती, भीमसेन विद्यालंकार, श्री सत्यदेव विद्यालंकार आदि के साथ सनातन धर्म संस्थानों के गोस्वामी गणेश दत्त जी के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। इसके साथ ही कन्या महाविद्यालय जालंधर की संस्थापिका आचार्या कुमारी लज्जावती जी का नाम भी इस क्षेत्र में रेखांकित किया जाना चाहिए। जिन्होंने 1886 में विद्यालय की स्थापना कर हिंदी प्रसार यज्ञ में आहुतियाँ दीं। पंजाब में सन् 1923 में हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना श्री जयचंद्र विद्यालंकार के मंत्रीत्व में हुई। डॉ. गोकुल चंद्र नारंग इसके अध्यक्ष बने। इस संस्था के अधिवेशन लाहौर, गुजरावाला, फिरोजपुर, अंबाला, नाहन, मुलतान, डेराइस्माल खाँ, अबोहर, शिमला आदि स्थानों पर हुए। दयाल सिंह कॉलेज लाहौर की प्रोफेसर संतराम ग्रोवर ने भी सराहनीय योगदान दिया।
उमाकांत 'प्राज्ञहंस' - तनेजा जी क्या अंग्रेजी के बिना भारतीय अधूरे हैं ? आपका क्या मत है ?
प्रो. विनोद तनेजा जी- अपने आपसे परिचित हुए बिना अन्य का परिचय हमारी पूर्णता में बाधक होता है। इसी अधूरेपन की चपेट में आधुनिकता के फेर में पाश्चात्य से प्रभावित पीढ़ी दिग्भ्रमित है। हालत यह है न खुदा ही मिला न विसाले सनम न इधर के रहे न उधर के रहे। अपनी पहचान हम दूसरों के माध्यम से कब तक करेंगे ?
उमाकांत 'प्राज्ञहंस' - डॉ. साहब क्या अंग्रेजी के सहारे भारत विश्वगुरु बन पाएगा या उसे उस स्थिति में अपने योगदान के लिए भाषिक अस्मिता पर विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा ? स्पष्ट करें।
प्रो. विनोद तनेजा जी- दूसरी भाषाओं से हमारे ज्ञान का क्षेत्र विस्तार होता है। तुलनात्मक अध्ययन को दिशा मिलती है। परिचय विस्तार होता है। यदि आपका प्रश्न समुचित हो तो नाट्यशास्त्र के आचार्य या भामह, दंडी, विश्वनाथ आदि के ज्ञान भंडार को, चाणक्य की नीति को क्या स्थान दें ? काव्येशु नाटकं रम्यम् तत्रापि शकुंतला के कालिदास को कहाँ रखेंगे। बाल्मीकि, व्यास के साहित्य को सीमित कर देंगे। तुलसी के रामचरितमानस को सिर्फ अवधि क्षेत्र में सीमित कर देंगे। इसी तरह गुरु ग्रंथ साहिब को सिर्फ पंजाब तक सीमित कर देंगे। पूर्वाग्रह के मोह से मुक्त होकर 'अपने को विस्तृत कर लो' की पंक्ति को चरितार्थ करना होगा।
उमाकांत 'प्राज्ञहंस' - डॉ. साहब क्या हिंदी प्रेमियों का योगदान हिंदी साहित्य तक ही होना चाहिए या अन्य क्षेत्रों में भी होना चाहिए आपके क्या विचार हैं ?
प्रो. विनोद तनेजा जी- साहित्य तो समाज के भीतर से उत्स पाता है। भाषा-विशेष अभिव्यक्ति का माध्यम है। हिंदी का सहोदरी भाषा-बोलियों के साथ तो गहरा नाता है ही। अन्य क्षेत्रीय भाषा-बोलियाँ भी तो उसी मिट्टी में पनपती हैं। उदाहरण के लिए भक्ति साहित्य को देखें, आलवारों ने जो संकेत दिये उन्हें संतो ने अपने-अपने क्षेत्रों में किस प्रकार प्रस्तुत किया, भाषा में अंतर था भाव में नहीं। इसी प्रकार स्वतंत्रता के भाव भी देखें कितनी साम्यता है। तो आज के छाये अंतर कुहासे से जिसे जाने अनजाने कारणों से गाढ़ा किया जा रहा है को छांटना आवश्यक है।
उमाकांत 'प्राज्ञहंस' - डॉ. साहब जब चीन अपने यहाँ चिकित्सा और अभियंत्रिकी जैसे विषयों की शिक्षा चीनी भाषा में देकर योग्य चिकित्सक और अभियंता अपने देश को दे सकता है तो भारतीय हिंदी या अन्य भारतीय भाषा में ऐसा क्यों नहीं कर पाते ?
प्रो. विनोद तनेजा जी- हमारे यहाँ चरक, सुश्रुत आदि ने अंग्रेजी में तो न पढ़ा और न ही अपने विचार शिष्य-परंपरा को दिये। च्यवन ने भी अपने सिद्धांत अंग्रेजी में नहीं दिये। इसी तरह साहित्य थाती भी है मध्यकाल का सारा दर्शन लोकभाषा में हैं न अंग्रेजी में।
उमाकांत 'प्राज्ञहंस' - क्या आपके हिसाब से अंग्रेजी से मुक्ति का मार्ग संभव है ? यदि हाँ तो कैसे ?
प्रो. विनोद तनेजा जी- जब समय के साथ संस्कृत, पाली, अपभ्रंश के साथ फ़ारसी, अरबी से मुक्ति हो गयी, तो अंग्रेजी का मोहभंग भी संभव है। संकल्प होना चाहिए।
उमाकांत 'प्राज्ञहंस' - हिंदी के उत्थान में लगे हमारे विद्वान पाठकों हेतु आपके क्या सुझाव हैं ?
प्रो. विनोद तनेजा जी- युवा पीढ़ी को पश्चिमी मोह से मुक्ति तभी मिल सकेगी जब उसे अपनी वास्तविकता का परिचय अपनी संस्कृति से प्राप्त होगा। जब तक हम दूसरों की नजर से अपने परिचय को परखेंगे; तब तक सही रूप का परिचय नहीं मिलेगा। हमें यह भी जानकारी रखनी चाहिए कि हम एक लंबे समय से अपने बारे में जो कुछ जानकारी रखते हैं वह अपनी भारतीयता की पहचान नहीं करवाती।
उमाकांत 'प्राज्ञहंस' - डॉ. साहब, मुझे आशा है कि यह साक्षात्कार हिंदी के विकास में सहायक सिद्ध होगा। साथ ही मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि ईश्वर आपको दीर्घायु प्रदान करें और आप निरंतर हिंदी सेवा में लगे रहें। तनेजा जी आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!
प्रो. विनोद तनेजा जी- जी, आपको भी हिंदी की सेवा में लगे रहने के लिये धन्यवाद व शुभकामनाएँ।
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