धर्म (लघुकथा) - विजय कुमार शर्मा

धर्म 



विजय कुमार शर्मा, चण्डीगढ़, भारत 


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मधुर अपने मित्रों के साथ , विश्वविद्यालय से पांच किलोमीटर दूर एक युवा छात्रावास में रहता था क्योंकि यहां पुस्तकालय की सुविधा चौबीस घंटे थी। मधुर ध्येयनिष्ठ होकर पुस्तकालय में डटा रहता। पढ़ते पढ़ते जब दिमाग जवाब दे जाता तो साइकिल उठा कर निकल पड़ता समाज सेवा के लिए। रास्ते में बीच सड़क पर पड़े कंकर पत्थर, कूड़ा कर्कट तो उसे फूटी आंख नहीं सुहाते थे।झट से साइकिल से उतर स्वच्छता अभियान में जुट जाता।उसे स्मरण हो उठती वह काली कलूटी अमावस जिसने पोंछ दिया था उसकी मां का सिंदूर,लील लिया था उसका बचपन मात्र सात वर्ष का ही रहा होगा मधुर,जब बीच सड़क के गड्ढे में गिर गया था पिता जी का स्कूटर।बेचारगी गिरती उठती,रोती सिसकती आज पच्चीस की हो गई थी।एम.ए 70% से विश्वविद्यालय में प्रथम रह कर किया था।
आज पी.एच.डी के लिए साक्षात्कार था। उसके सहपाठी भी साक्षात्कार हेतु जा रहे थे।वे बहुत परेशान थे कि मधुर के रहते"धर्म की अवधारणा और भारतीय संस्कृति " जैसा महत्त्वपूर्ण विषय भला और किसे मिलेगा ।वह मधुर को रोकने की हर योजना पर दिनों से लगे थे।पर मतवाला मधुर इन सब से बेखबर या तो पुस्तकालय में या स्वच्छता अभियान में लगा था।कुटिल आंखों ने उसे पढ़ लिया था और योजना भी गढ़ ली गई थी।बस बिसात बिछानी बाकी थी। शोधकर्ता मधुर से दस मिनट पहले विश्वविद्यालय के लिए निकल पड़े। मधुर की राह में कंकर रुपी बाधाएं बिछाते चले गए।पांच किलोमीटर के रास्ते में कोई बीस जगह  बिछाई बिसात को साफ करके हांफता हुआ
मधुर जब देरी से विश्वविद्यालय पहुंचा तो उसका नाम सूची में नहीं था क्योंकि जिस धर्म को उसने धारण किया हुआ था, वह शायद आज का विषय नहीं था........!!!

 


   


कवि परिचय-


विजय कुमार शर्मा

कार्यक्षेत्र- शिक्षक (हिन्दी, पंजाबी, अंग्रेजी)

शैक्षणिक योग्यता- स्नातक हिन्दी(आनर्स) स्नातकोत्तर(अंग्रेजी)

अभिरुचि- समसामयिक विषयों का अध्ययन उपरांत चिन्तन एवं लेखन। लघुकथा लेखन में विशेष रुचि।

 


 


 


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