जसवंत सिंह रावत

शहीद जसवंत सिंह रावत 



 


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भारत में वीरों की कमी नहीं है। यहां की माताएं वीरों को जन्म देती हैं। यहां के वीर सैनिक बहादुरी के लिए विश्व प्रसिद्ध है। परंतु शहीद जसवंत सिंह रावत का स्थान भारतीय सेना ने अनोखा और निराला है। वे ऐसे वीर जवान हैं जिनकी शहादत के बावजूद उनके नाम के आगे स्वर्गीय नहीं लगता। आज भी भारतीय सेना में उनका निराला कद है। आज अरुणाचल प्रदेश भारत का राज्य है यह जसवंत सिंह रावत के युद्ध का ही परिणाम है।  यह संभवत अकेले वीर जवान हैं जिनकी जयंती मनायी जाती है जयंती 19 अगस्त को मनायी जाती है। भारत और चीन के बीच 1962 की लड़ाई में वीर जसवंत सिंह रावत ने चीनी सेना को नाको चने चबवा दिया था। उन्होंने अकेले ही 72 घंटो तक चीनी सेना के 300 जवानों को मौत के घाट उतारा दिया। जानकार कहते हैं कि जसवंत सिंह एक की वीरता का लोहा चीनी सेना ने भी माना था। उनके अदम्य साहस और वीरता के लिए देश और पूरा उत्तराखंड हमेशा उन्हें याद रखेगा। आइए जानते हैं कि कैसे जसवंत सिंह ने तीन दिन तक चीनी सेना की नाक में दम करके रखा।


कौन हैं जसवंत सिंह रावत 


वीर जसवंत सिंह रावत का जन्म 19 अगस्त 1941 को उत्तराखंड के ग्राम-बाड्यूं ,पट्टी-खाटली,ब्लाक-बीरोखाल, जिला-पौड़ी गढ़वाल में हुआ था। उनके अंदर देशप्रेम इस कदर था कि वे 17 साल की उम्र में ही सेना में भर्ती होने चले गए, लेकिन उन्हें कम उम्र के कारण लिया नहीं गया। इसके बाद फिर उनकी उम्र होने पर ही उन्हें सेना में भर्ती किया गया। सेना में राइफल मैन के पद पर शामिल कर लिया गया। 14 सितंबर 1961 को जसवंत की ट्रेनिंग पूरी हुई, इस दौरान यानी 17 नवंबर 1962 को चीन की सेना ने अरुणाचल प्रदेश पर कब्जा करने के उद्देश्य से चौथा व आखिरी हमला कर दिया। जिस समय चीन ने अरुणाचल प्रदेश पर हमला किया उस समय अरुणाचल की सीमा पर भारतीय सेना की तैनाती नहीं थी। जिसका फायदा उठाकर चीन ने भारत पर हमला बोल दिया। चीन ने अरुणाचल पर हमला कर काफी तबाही मचाई और महात्मा बुद्ध की मूर्ति के हाथों को काटकर ले गए। चीनी सेना ने वहां औरतों की इज्जत भी लूटी। इस दौरान चीनी सेना को रोकने के लिए वहां सेना की गढ़वाल यूनिट की चौथी  बटालियन की एक कंपनी नूरानांग ब्रिज की सेफ्टी के लिए तैनात की गयी, जिसमें जसवंत सिंह रावत भी शामिल थे। लेकिन सेना के जवानों के पास चीनी सेना का भरपूर जवाब देने के लिए पर्याप्त हथियार और गोला बारूद उपलब्ध नहीं था। चीन की सेना हावी होती जा रही थी, इसलिए भारतीय सेना ने गढ़वाल यूनिट की चौथी बटालियन को वापस बुला लिया। लेकिन गढ़वाल राइफल के तीन जवान रायफल मैन जसवंत सिंह रावत, लांस नाइक त्रिलोक सिंह नेगी, रायफल मैन गोपाल सिंह गुसाईं वापस नहीं लौटे। ये तीनों सैनिक एक बंकर से गोलीबारी कर रही चीनी मशीनगन को छुड़ाना चाहते थे। तीनों जवान चट्टानों और झाड़ियों में छिपकर भारी गोलीबारी से बचते हुए चीनी सेना के बंकर के करीब जा पहुंचे और महज 15 यार्ड की दूरी से हैंड ग्रेनेड फेंकते हुए दुश्मन सेना के कई सैनिकों को मारकर मशीनगन छीन लाए। इससे पूरी लड़ाई की दिशा ही बदल गयी और चीन का अरुणाचल प्रदेश को जीतने का सपना पूरा नहीं हो सका। हालांकि, इस गोलीबारी में त्रिलोकी और गोपाल मारे गए। वीर जसवंत सिंह ने खुद नूरानांग की पोस्ट पर तैनात होकर चीनी सेना को आगे बढऩे से रोकने का फैसला किया। वीर जसवंत सिंह ने अकेले ही 72 घंटो तक लड़ते हुए चीनी सेना के 300 जवानों को मौत के घाट उतार दिया और किसी को भी आगे नहीं बढऩे दिया। वीर जसवंत सिंह जितने बहादुर थे उतने ही वह चालाक भी थे। उन्होंने अपनी चतुराई और बहादुरी के बल पर चीनी सेना को 3 दिनों तक रोके रखा। इसके लिए उन्होंने पोस्ट की अलग अलग जगहों पर रायफल तैनात कर दी थी और कुछ इस तरह से फायरिंग कर रहे थे जिससे की चीन की सेना को लगा यहां एक अकेला जवान नहीं बल्कि पूरी की पूरी बटालियन मौजूद है। इस बीच रावत के लिए खाने पीने का सामान और उनकी रसद आपूर्ति वहां की दो बहनों शैला और नूरा ने की जिनकी शहादत को भी कम नहीं आंका जा सकता। 72 घंटे तक चीन की सेना ये नहीं समझ पाई की उनके साथ लडऩे वाला एक अकेला सैनिक है। फिर 3 दिन के बाद जब नूरा को चीनी सैनिको ने पकड़ दिया तो उन्होंने इधर से रसद आपूर्ति करने वाली शैला पर ग्रेनेड से हमला किया और वीरांगना शैला शहीद हो गयी। उसके बाद उन्होंने नूरा को भी मार दिया दिया और इनकी इतनी बड़ी शहादत को हमेशा के लिए जिंदा रखने के लिए आज भी नूरनाग में भारत की अंतिम सीमा पर दो पहाडिय़ा है जिनको नूरा और शैला के नाम से जाना जाता है। नूरा और शैला की शहादत के बाद वीर जसवंत सिंह को मिलने वाली रसद आपर्ति कमजोर पडऩे लगी। बावजूद इसके वह दुश्मनों से लड़ते रहे, लेकिन रसद आपूर्ति की कमी के चलते आखिरकार उन्होंने 17 नवम्बर 1962 को खुद को गोली मार ली। चीनी सैनिको को जब पता चला कि वह 3 दिन से एक ही सिपाही के साथ लड़ रहे थे तो वो भी हैरान रह गए। चीनी सेना जसवंत सिंह रावत का सर काटकर अपने देश ले गयी। इस तरह 1962 की लड़ाई में चीनी सेना के खिलाफ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए थे। इसके बाद 20 नवंबर 1962 को चीन ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी। जिसके बाद चीनी कमांडर ने जसवंत सिंह की इस साहसिक बहादुरी को देखते हुए न सिर्फ जसवंत सिंह का शीश वापस लौटाया बल्कि सम्मान स्वरुप एक कांस की बनी हुई उनकी मूर्ति भी भेंट की। जसवंत सिंह ने जिस जगह पर चीनी सेना के दांत खट्टे किए थे उस जगह पर उनके नाम का एक मंदिर (स्मारक) बनाया गया है। जहां पर चीनी कमांडर द्वारा सौंपी गई जसवंत सिंह की मूर्ति को भी रखा गया है। भारतीय सेना का हर जवान उनको शीश झुकाने के बाद ड्यूटी करता है। वहां रहने वाले जवानों और स्थानीय लोगों का मानना है कि जसवंत सिंह रावत की आत्मा आज भी भारत की पूर्वी सीमा की रक्षा कर रही है। वहां तैनात कई जवानों का कहना है कि जब भी कोई जवान ड्यूटी पर सोता है जसवंत सिंह रावत उनको थप्पड़ मारकर जगाते हैं। मानो वह उनके कानों में कहते हो की मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी करो क्योंकि देश की सुरक्षा तुम्हारे हाथो में है। बता दें कि इस स्मारक में उनकी हर चीज को संभाल कर रखा गया है। आपको जानकर हैरानी होगी कि आज भी यहां इनके कपड़ो पर रोज प्रेस की जाती है। साथ ही रोज इनके बूटो पर पोलिश भी की जाती है। यही नहीं रोज सुबह दिन और रात की भोजन की पहली थाली जसवंत रावत को ही परोसी जाती ह। इस काम के लिए सिख रेजीमेंट के पांच जवान तैनात किए गए हैं। बताया जाता है कि सुबह-सुबह जब चादर और अन्य कपड़ों को देखा जाए तो उनमें सिलवटें नजर आती हैं। वहीं, पॉलिश के बावजूद जूतों बदरंग हो जाते हैं। जसवंत सिंह रावत भारतीय सेना के ऐसे पहले जवान है जिनको मरणोपरांत भी पदोन्नति दी जाती है। रायफल मैन जसवंत सिंह पहले नायक फिर कैप्टन और अब वह मेजर जनरल के पद पर पहुंच चुके हैं और उनके परिवार वालो को उनकी पूरी सैलरी दी जाती है। घर में शादी या धार्मिक कार्यक्रमों के अवसरों पर परिवार वालों को जब जरूरत होती है, तब उनकी तरफ से छुट्टी की एप्लिकेशन दी जाती है और मंजूरी मिलते ही सेना के जवान उनके तस्वीर को पूरे सैनिक सम्मान के साथ उनके उत्तराखंड के पुश्तैनी गांव ले जाते हैं। वहीं, छुट्टी समाप्त होते ही उस तस्वीर को ससम्मान वापस उसी स्थान पर ले जाया जाता है।


1962 के भारत-चीन युद्ध में 72 घंटे तक अकेले बॉर्डर पर लड़कर शहीद होने वाले भारतीय सैनिक जसवंत सिंह रावत आज भी अमर हैं। 24 घंटे उनकी सेवा में सेना के पांच जवान लगे रहते हैं। जसवंत सिंह रावत को भारत सरकार ने.मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया है। 19 अगस्त को इनकी जयंती मनायी जाती है।


जानकारी- इंटरनेट साभार।


 


 


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